कवयित्री और स्वतंत्र पत्रकार, जसिंता केरकेट्टा का नाम हर वह व्यक्ति जानता है जिनका लगाव जल-जंगल-जमीन और आदिवासी जीवन से रहा है। उनके तीन कविता संग्रह आए हैं अंगोर, जड़ों की ज़मीन और ईश्वर और बाजार। इन कविताओं में सशक्त प्रतिरोध दिखता है। जसिता कहती हैं “इन कविताओं ने ही मुझे जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़, गांव-गांव घूमते हुए जमीन के लोगों के लिए लिखने, जीने और एक दिन मरने का जज्बा दिया है”। अपनी कविताओं से एक नया आयाम गढ़ने वाली जसिंता को फॉर्ब्स इंडिया ने सेल्फ मेड वुमन की सूची में रखा है। फोर्ब्स इंडिया की W Power 2022 की सूची में ऐसी महिलाओं को शामिल किया गया है, जो रूढ़ियों को तोड़ रही हैं, आशंकाओं को दरकिनार कर रही हैं और साथ ही बदलाव का नेतृत्व भी कर रही हैं।
आइए जानते हैं उनकी कहानी, उन्ही की जुबानी। मेरा जन्म 3 अगस्त, 1983 को झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के खुदपोस गांव में हुआ। माता-पिता, तीन बहनों और दो भाई के परिवार को बचपन से ही गरीबी देखने को मिली। पिता पुलिस में थे, लेकिन आदिवासी समुदाय से होने के कारण उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा। नौकरी छूट गई तो परिवार के लिए घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया। मजबूरी में मां को सब्जी तक बेचनी पड़ी। दोनों भाइयों की पढ़ाई भी छूट गई। उन्हें मजदूरी करनी पड़ी।
छठी क्लास में थी तब बीमारी से मरणासन्न थी
मुझे बचपन में एक बार एक बीमारी हुई थी। उसका नाम मुझे मालूम नहीं लेकिन उस बीमारी में फेफड़ों की हड्डियों तक में गठिया की बीमारी हो जाती है और बचना मुश्किल होता है। यह स्कूली दिनों में हुआ था जब मैं छठी क्लास में थी। वे असहनीय दर्द वाले दिन थे। उन दिनों मानसिक संतुलन भी खो गया । दिन, रात का पता नहीं चलता था और मां के सिवा किसी को भी पहचानना मुश्किल होता था। मानसिक असंतुलन को देखते हुए लोग रांची कांके स्थित पागलखाने भी भेजने की सलाह देते थे. लेकिन इन सब परिस्थितियों में भी मेरी मां हर वक्त मेरे साथ खड़ी रही। उनकी मेहनत से ही मैं बच सकी। सालभर की मानसिक और शारीरिक जद्दोजहद के बाद ही मैं अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास से बाहर निकल सकी। उस बीमारी से फिर कभी सामना नहीं हुआ। उसके बाद मैं बोर्डिंग पढ़ने के लिए चली गई। उन्हीं दिनों मैंने सातवीं और आठवीं क्लास में कविता-कहानी लिखने की शुरुआत की। यह दूसरों के दुःख को भी महसूसने की शक्ति देती थी। पहली कविता सातवीं क्लास में लिखी पर आठवी क्लास में आकर लिखी कविता पहली बार प्रकाशित हुई। इसके बाद लिखने का सिलसिला जारी रहा। स्कूल के दिनों में भी कार्यक्रमों में कविताएं पढ़ती थीं।
ऐसे सपने देखे जिनसे मुझे खुशी मिले
फॉर्ब्स इंडिया में प्रकाशित होने के बारे ही नहीं, मेरी कई विदेश यात्राओं के बारे भी कभी सोचा नहीं था। किसी भी उपलब्धि के बारे कभी नहीं सोचा। मैंने सिर्फ़ ऐसे काम करने के सपने देखे जिससे मुझे खुशी मिले, जो मेरे दिल के करीब हो और मुझे सार्थक महसूस कराए। पर जब हर बार कुछ नया घटता है तो यह बात खुशी देती है कि हम हर मंच पर अपनी बात रख पा रहे हैं। यह बहुत सारे युवाओं, स्त्रियों, आदिवासी समाज को ताक़त और आत्मविश्वास देगा। इस उम्मीद से मुझे ताकत मिलती है।
बिजली की तरह कौंधती हैं कविताएं कविताएं
कौंधती हैं बिजली की तरह इंसान के भीतर कहीं, इसलिए इसकी कोई प्लानिंग मेरे दिमाग में नहीं रहती। इसके लिए इंतजार करना होता है और निरंतर सजग रहना होता है। साथ ही संकीर्णता से खुद को बचाना भी होता है। जैसे अधिकांश आदिवासियों के जीवन में आर्थिक समस्या रहती है, नशा की वजह से घर-परिवार में हिंसा भी रहती है, वह सब मेरे जीवन का संघर्ष भी रहा। लेकिन हमेशा अपना रास्ता खुद गढ़ने की ललक और आत्मविश्वास भी रहा ।
जसिंता का अर्थ है ‘दुःख का फूल‘
लोग मेरे नाम का अर्थ जानना चाहते हैं। जसिंता एक फूल का नाम है। इसके पीछे एक मिथक कहानी है कि एक योद्धा की हत्या पर जिस ज़मीन पर उसका खून गिरा, वहां छोटे-छोटे गहरे बैगनी रंग के फूल खिले जिसे दुःख का फूल भी कहा जाता है। उसी को जसिता भी कहा जाता है।