गदाधर चट्टोपाध्याय से महान संत और आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस बनने की अनोखी कहानी!


“ईश्वर का दर्शन किया जा सकता है” ये मानना था महान संत और आध्यात्मिक गुरू रामकृष्ण परमहंस का। वे कहते थे कि ईश्वर के दर्शन के लिए आध्यात्मिक चेतना की तरक्की पर जोर देना आवश्यक है। आध्यात्मिक चेतना ईश्वर तक पहुंचे, इसके लिए वे धर्म को साधन मात्र समझते थे, यही वजह थी कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस संसार के सभी धर्मों में विश्वास करते थे। उनके आचरण और उपदेशों ने एक बड़ी आबादी के मन को छुआ, जिनमें उनके परम शिष्य भारत के एक विख्यात आध्यात्मिक गुरु, प्रणेता और विचारक स्वामी विवेकानंद भी शामिल थे। स्वामी विवेकानंद ने ही अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर 1 मई 1897 को कोलकाता में एक धार्मिक संस्था ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की थी।

गदाधर है रामकृष्ण परमहंस का असली नाम

18 फरवरी 1836 को बंगाल के कामारपुकुर गांव में स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके माता-पिता ने उनका नाम गदाधर चट्टोपाध्याय रखा। गदाधर नाम रखने के पीछे भी एक कहानी कही जाती है, जिसके अनुसार स्वामी रामकृष्ण के पिता खुदीराम और मां चंद्रमणि देवी को अपनी चौथी संतान के जन्म से पहले ईश्वरीय अनुभव हुआ। पिता को यह सपना आया था कि भगवान गदाधर (भगवान विष्णु) उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने वाले हैं। इस घटना के एक दिन बाद ही माता चंद्रमणि देवी को एक शिव मंदिर में पूजा करने के दौरान उनके गर्भ में एक दिव्य प्रकाश के प्रवेश करने का अनुभव हुआ।

भगवान गदाधर के सपने में आने के कारण माता-पिता ने उनका नाम गदाधर रख दिया। इस बात का जिक्र रामकृष्ण की डायरी में है कि बचपन में उनके पिता उन्हें बचपन में रामकृष्णबाबू कहते थे। रामकृष्ण अपनी माता-पिता की सबसे छोटी संतान थे, उनके दो बड़े भाइयों के नाम रामकुमार और रामेश्वर थे और बहन का नाम कात्यायनी था।

7 वर्ष की उम्र में पहला आध्यात्मिक अनुभव

ऐसा कहते हैं कि स्वामी रामकृष्ण को छह-सात वर्ष की उम्र पहली बार आध्यात्मिक अनुभव हुआ, जो आने वाले वर्षों में उन्हें समाधि की अवस्था में ले जाने वाला था। कहानी के अनुसार बालक रामकृष्ण एक दिन सुबह धान के खेत की संकरी पगडंडियों पर चावल के मुरमुरे खाते हुए टहल रहे थे। तभी पानी से भरे बादल आसमान में तैर रहे थे, ऐसा लग रहा था मानों तेज वर्षा होने वाली हो। उन्होंने देखा कि सफेद सारस पक्षी का एक झुंड बादलों की चेतावनी के खिलाफ उड़ान भर रहा था। जल्द ही आसमान में काली घटा घटा छा गई। बालक रामकृ्ष्ण भी वहीं अचेत होकर गिर पड़े। आसपास के लोगों ने जब यह देखा तो वे फौरन उन्हें उठाकर घर ले आए। यही रामकृष्ण का यह पहला आध्यात्मिक अनुभव था।

माता काली की साधना समर्पित जीवन

बंगाल में रानी रासमणि ने हुगली नदी के किनारे दक्षिणेश्वर काली मंदिर (कोलकाता के बैरकपुर में) का निर्माण करवाया था। रामकृष्ण का परिवार ही इस मंदिर की जिम्मेदारी संभालता था, रामकृष्ण भी इसी में सेवा देने लगे और पुजारी नियुक्त हुए। 856 में रामकृष्ण को इस मंदिर का मुख्य पुरोहित बनाया गया। उनका मन पूरी तरह से माता काली की साधना में ही समा गया।

स्वामी विवेकानंद के गुरु बनें

युवावस्था में रामकृष्ण ने तंत्र-मंत्र और वेदांत सीखने के बाद, इस्लाम और ईसाई धर्मों का भी अध्ययन किया। आध्यात्मिक अभ्यासों, साधना-सिद्धियों और उनके विचारों से प्रभावित होकर तत्कालीन बुद्धिजीवी उनके अनुयायी और शिष्य बन गए। उस समय बंगाल बुद्धिजीवियों और विचारकों का गढ़ हुआ करता था। इसी समय नरेंद्र नाथ दत्त (स्वामी विवेकानंद) भी उनके संपर्क में आए, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य उन्हें ठाकुर कहकर पुकारते थे।

रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा

रामकृष्ण छोटे-छोटे उदाहरणों और कहानियों के माध्यम से अपनी बात बेहद सरलता से रखते थे। उनके आध्यात्मिक आंदोलन में जातिवाद और धार्मिक पक्षपात की जगह बिल्कुल भी नहीं थी, इसलिए हर वर्ग और सम्प्रदाय के मन में उन्होंने जगह स्थापित की। लोगों को एकता और सामूहिकता में बांधने का काम भी उन्होंने किया। उनकी शिक्षाएं जीवन के परम लक्ष्य यानी मोक्ष पर केंद्रित हैं, जिसके लिए व्यक्ति को आत्मज्ञान का होना जरूरी है।

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Dr. Kirti Sisodia

Content Writer

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