Bastar Dussehra: निशा जात्रा बस्तर दशहरा की सबसे अनूठी और रहस्यमयी तांत्रिक रस्म है। यह जगदलपुर, छत्तीसगढ़ में महाअष्टमी और नवमी की रात आधी रात के बाद की जाती है। यह 600 से अधिक वर्षों से चली आ रही है और इसे कभी-कभी काले जादू की रस्म भी कहा जाता है।
मुख्य उद्देश्य
- देवी-देवताओं को प्रसन्न करना
- राज्य और जनता की सुरक्षा करना
- बुरी आत्माओं और नकारात्मक शक्तियों को दूर करना
- क्षेत्र में शांति और खुशहाली बनाए रखना
पूजा की विधि
भोग की तैयारी
- मावली मंदिर में 12 गांवों के देवी-देवताओं के लिए विशेष भोग बनाया जाता है।
- इसमें चावल, खीर, उड़द की दाल और उड़द से बने बड़े शामिल हैं।
- भोग को 24 मिट्टी की हंडियों में रखा जाता है।
- कांवड़ यात्रा, हंडियों को निशागुड़ी तक ले जाते हैं।
पूजा स्थल पर अनुष्ठान
- जगदलपुर के राजपरिवार और राजगुरु पूजा करते हैं।
- देवी दंतेश्वरी के पुजारी मंत्रों का उच्चारण करते हुए तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं।
पशु बलि
- 11 या 12 बकरों की प्रतीकात्मक बलि दी जाती है
- बलि से पहले बकरों के कान में मंत्र फूंके जाते हैं और उन्हें देवी-देवताओं को समर्पित किया जाता है।
- भोग और हंडियों का नाश, पूजा के बाद भोग और खाली हंडियों को तोड़ दिया जाता है ताकि उनका दुरुपयोग न हो सके।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
- निशा जात्रा की उत्पत्ति बस्तर के चालुक्य (काकतीय) वंशीय राजा पुरुषोत्तम देव से जुड़ी है।
- यह परंपरा 1301 ईस्वी के आसपास स्थापित हुई थी।
- पहले हजारों भैंसों और बकरों की बलि दी जाती थी, अब केवल प्रतीकात्मक बलि होती है।
लोककथाओं के अनुसार, राजा पुरुषोत्तम देव ने यह परंपरा अपनी प्रजा की सुरक्षा के लिए जगन्नाथपुरी यात्रा से लौटने के बाद शुरू की।
सांस्कृतिक महत्व
- बस्तर दशहरा और निशा जात्रा आदिवासी समाज, राजपरिवार और लोकविश्वासों का मेल हैं।
- गुड़ी मंदिर, रथयात्रा और तांत्रिक अनुष्ठानों की इसमें विशेष भूमिका है।
https://www.youtube.com/watch?v=lA-3kaj_kFUनिशा जात्रा बस्तर दशहरा की सबसे रहस्यमयी तांत्रिक पूजा है। यह राज्य की सुरक्षा, शक्ति और शांति बनाए रखने की पुरानी परंपरा है। 600 साल पुरानी यह रस्म न केवल धार्मिक आस्था, बल्कि बस्तर की सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक है।