

बिहार का खूबसूरत रंगों और आकृतियों वाला ‘टिकुली कला’ जो कि 800 साल पुराना है। जो कला के जीवंत रूप को परिभाषित करता है। और इस कला को संवारने का काम कर रहे हैं बिहार के ही कलाकार अशोक कुमार बिस्वास। बिस्वास के समर्पण ने न केवल कला रूप को एक बार फिर से जीवन दिया है, बल्कि इसे 300 से अधिक महिलाओं के लिए रोजगार का स्रोत बना दिया। आज सैकड़ों महिलाएं बिस्वास से टिकुली कला में प्रशिक्षित हो चुकी हैं। टिकुली कला, मधुबनी कला पटना की स्तंभ कला परंपरा और लकड़ी पर तामचीनी पेंट का उपयोग कर जापानी कला तकनीकों का मेल है।
अशोक कुमार संवार रहे हैं बिहार की ‘टिकुली कल’
ऐतिहासिक रुप से टिकुली कला काफी समृद्ध है। लगभग 800 साल पुरानी यह कला धीर-धीरे खत्म हो रही थी। लेकिन अशोक कुमार बिस्वास ने इस कला को दोबारा जीवन दिया। दरअसल अशोक ने ‘टिकुली कला’ से लगातार जुड़े रहे साथ ही उन्होंने महिलाओं को इस कला को समझाना भी शुरू किया। ताकि इसका प्रयोग कर वे अपना जीवन संवार सकें। आज इसी कला के माध्यम से महिलाएं प्रशिक्षण लेकर रोजगार कर रही हैं। और आर्थिक रूप से समृद्ध हो रही हैं।
पटना के नसरगंज गांव में अशोक एक छोटे से कमरे में प्रशिक्षण केंद्र चलाते हैं। जो की पटना से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । यहां राज्य भर की महिलाएं बिस्वास से टिकोली तकनीक सीखती हैं और फिर अपनी आजीविका के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं।
सदियों पुरानी है टिकुली कला
टिकुली कला का इतिहास काफी समृद्ध है। बिस्वास बताते हैं पहले टिकुली बनाने का काम पिघली हुई कांच की शीट पर किया जाता था। कांच की शीट को अलग अलग आकारों में गोल टुकड़ों में काट कर उस पर आकृतियां उकेरी जाती थीं।
अब इसे बनाने का तरीके में समय के साथ काफी बदलाव आया है सिर्फ बिंदी के रूप में इस्तेमाल किये जाने वाली टिकुली काफी रूप में नज़र आने लगी है जैसे की टेबल मैट, पेन स्टैंड ,वाल पेंटिंग,झुमके, सभी में इसे उकेरा जा रहा है।
सरकार का सहयोग
भारत सरकार आमतौर पर गांधी शिल्प बाजार और देश भर में अन्य राष्ट्रीय कला मेलों जैसे कार्यक्रम आयोजित करती है। जहां कलाकारों को अपना काम सीधे ग्राहकों को बेचने का मौका मिलता है। जिससे महिलाओं को काम मिल रहा है। इन्हीं माध्यमों के जरिए बिहार की महिलाएं भी अपनी कला को दुनिया तक पहुंचा रही हैं।