Bharat Parv: दो दशक पीछे जाएँ तो आँखों के सामने कार, बस या ऑटो में लगे झंडे, लाउडस्पीकर से प्रत्याशी को जिताने की अपील के साथ धुआँधार नारेबाज़ी और छोटे-छोटे प्लास्टिक या कागज़ के बिल्लों के लिये लपकते बच्चों वाली चुनाव प्रचार की तस्वीर जीवंत हो उठती है। लेकिन अब यह दृश्य पूरी तरह बदल चुका है और इसकी जगह ले ली है छह इंच के मोबाइल फोन के स्क्रीन ने।
पिछले एक दशक में तो social media चुनाव प्रचार अभियान का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा होगा, जो इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल अपनी बात रखने और प्रतिद्वंद्वियों(ऑपोनेंट्स) के आरोपों का जवाब देने के लिये न कर रहा हो।
21वी सदी को सूचना क्रांति का युग कहा जाता है। मीडिया, सोशल मीडिया को Democracy का Fourth Pillar भी कहा जाता है। आइए इस बेहद खास एपिसोड में जानते है इन्फॉर्मेशन और कम्युनिकेशन के मीडियम कैसे डेमोक्रेसी को नई दिशा और दशा देते है।
“इंटरनेट इन इंडिया रिपोर्ट” के मुताबिक भारत की 142 करोड़ आबादी में से लगभग 82 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट की पहुंच है। यह पूरी दुनिया में चीन के बाद सर्वाधिक है।
ज्यादा इंटरनेट यूजर्स का सीधा अर्थ है, इन्फॉर्मेशन की ज्यादा पहुंच। इन्फॉर्मेशन की ज्यादा पहुंच का मतलब है नागरिकों का ज्यादा से ज्यादा इंपावरमेंट।
चुनाव आयोग को अवेयरनेस मूवमेंट चलाना हो, राजनीतिक दलों को अपने मेनिफेस्टो का प्रचार प्रसार करना हो चाहे मीडिया को चुनाव से जुड़ी खबरें पहुंचानी हो सब इंटरनेट और इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के माध्यम से ही संभव होता है।
Social media को मजबूत pillar माना जाता है (Bharat Parv)
जब हम इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की बात करते है तो Social media को नजरंदाज नहीं कर सकते। Social media को सूचना क्रांति मजबूत pillar माना जाता है। Social media प्लेटफार्म में यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्वीटर, टेलीग्राम, शामिल है। हर प्लेटफार्म की अपनी एक अलग भूमिका है। आज न्यूज के लिए यूट्यूब, ओपिनियन के फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर जैसे प्लेटफार्म निर्णायक है।
Social media ने हर नागरिक की फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन के अधिकार को सशक्त किया है। मुद्दों पर पार्टी और कैंडिडेट्स की आलोचना, तारीफ खुलकर एवं सार्वजनिक रूप से कर सकते है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नामपर आप कुछ भी कंटेंट परोस दे। अनुचित पोस्ट करने वालों पर चुनाव आयोग व पुलिस प्रशासन की पैनी नजर होती है इसके लिए यूजर को जेल और जुर्माने का सामना भी करना पड़ सकता है।
Bharat Parv: क्या आप जानते है?
फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने स्वेच्छा से एक आचार संहिता तैयार कर चुनाव आयोग को सौंपी है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) और फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर, गूगल, शेयर चैट तथा टिक टॉक आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने मिलकर यह आचार संहिता तैयार की है। इस स्वैच्छिक संहिता का उद्देश्य उन उपायों की पहचान करना है जो उपयोगकर्त्ताओं का चुनावी प्रक्रिया में विश्वास बढ़ा सकते हैं। यह आगामी आम चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष संपन्न होने और इन संचार माध्यमों का किसी भी तरह के दुरुपयोग को रोकने में मदद करेगी।
एक रोचक फैक्ट है कि अमेरिकी चुनावों में तो लगभग 62% लोग सोशल मीडिया को information प्राप्त करने के साधन के तौर पर उपयोग करते है। यही नहीं 2016 अमेरिकी चुनावों में 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीतने के लिए सोशल मीडिया को सबसे बड़ा माध्यम बनाया था।
लेकिन सोशल मीडिया का एक नकारात्मक पहलू भी है। इसमें क्या सत्य है क्या प्रोपेगेंडा समझ पाना मुश्किल होता है। अमेरिकी लेखक मार्क ट्वैन ने कहा है “सच जब तक जूते पहन रहा होता है तब तक झूठ आधी दुनिया का सफर तय कर लेता है।” कुछ ऐसा ही करता है सोशल मीडिया चुनाव के समय भी। हालांकि फेक न्यूज, हेट स्पीच के Election Commission एक दंडनीय अपराध मानता है और इसके लिए जेल, जुर्माना जैसे कड़े प्रावधान भी किया है।
क्या है पोस्ट ट्रुथ युग (Post Truth Era)?
पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया कैंपेनिंग में एक टर्म उभरकर आया है वह है Post Truth Era, आखिर क्या है पोस्ट ट्रुथ युग? आइए जानते है।
Post Truth Era का सटिक हिंदी शब्द तो पता नही लेकिन यह एक ऐसा कथन होता जो सत्य से परे हो, सत्य जब सत्य न रहे, जब झूठ और सच में कोई अंतर न हो, जब सही गलत का विचार तथ्य या ज्ञान से न हो बल्कि भावनाओं के आधार पे हो उसे पोस्ट-ट्रुथ कहते है.
डोनाल्ड ट्रंप की सरकार आने के समय से इसका उपयोग अचानक से बढ़ गया। ट्रंप विरोधियों ने कहा कि ट्रंप जो बयान दे रहें हैं उनमें से अधिकतर झूठ हैं पर लोग या तो आंख मूंदकर विश्वास कर रहे हैं अथवा उन्हें फर्क ही नहीं पड़ता कि सच है या झूठ। बयान का भावनात्मक पक्ष ही मुख्य हो जाता है – उसकी सत्यता पीछे छूट जाती है । इनकी मास अपील, पर्सनालिटी बहत स्ट्रांग है, और ये इंसान के दुखती रग को भले भांति जानते है, ये अप्रिय सत्य नही बोलते है सुंदर झूठ बोलते है जो लोगों को अच्छा लगता है। फिर सोशल मीडिया द्वारा झूठ और फैलाई जाती है।
Pew Research Centre दुनिया भर के देशों में किए गए सर्वे में यह बात सामने आई की 57% लोग सोशल मीडिया को डेमोक्रेसी के लिए अच्छा मानते है जबकि 37% लोग इसे डेमोक्रेसी के लिए हानिकारक मानते है।
सूचना एवं संचार तंत्र में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है मेंस्ट्रीम मीडिया की कंस्ट्रक्टिव डिबेट को डेमोक्रेसी की आत्मा कहा जाता है। इंटरव्यू, Conclave और जनता से रायशुमारी ने जनता के पॉलिटिकल नॉलेज और पर्सपेक्टिव को मैच्योर बनाती है वहीं कैंडिडेट्स एवं पार्टीज को अपनी विचारधारा, एजेंडा को जनता तक पहुंचाने का मार्ग भी खोलती है।
परंतु यह भी एक कड़वा सत्य है कि कई भारतीय मीडिया हाउस टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स के चलते अपनी विश्वसनीयता खो रहे है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 180 देशों में 161वें नंबर पर खड़ा है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सोमालिया जैसे मुल्क भी रैंकिंग में हमसे बेहतर स्थिति में हैं।
भारत में डिजिटल मीडियम के आगे बढ़ने की जो रफ्तार है, उसे देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह आगामी चुनावों को प्रभावित करने वाला एक बड़ा माध्यम बनेगा। इसके पीछे सबसे बड़ी वज़ह यह है कि यह मीडियम युवाओं के हाथ में है और समाज को प्रभावित करने में इसकी बड़ी भूमिका है।
साथ ही, डिजिटल माध्यम में दोतरफा (bidirectional) और बहुआयामी संवाद (multidimensional dialogue) होता है, जिसमें एक साथ कई लोग अनेक लोगों से बात करते हैं। इसमें ग्रुप बनाने की भी सुविधा है, जिसकी वज़ह से लोगों की राय बनाने में ये माध्यम ज्यादा प्रभावी हैं। डिजिटल माध्यम से खबरें और विचार तुरंत लोगों तक पहुँचाए जा सकते हैं।
इसीलिये इस माध्यम के ज़रिये राजनीतिक दल एक ही विषय-वस्तु (content) को अलग-अलग तरीके से पहुँचा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान सोशल और डिजिटल मीडिया लोगों की राय को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाएगा और इसकी अनदेखी करने वाले घाटे में रहेंगे।