Cloud Seeding: दिल्ली की हवा में इन दिनों धुएं और धूल की परत छाई रहती है। दीपावली के बाद तो हालात और भी खराब हो जाते हैं, AQI 300 से ऊपर, सांस लेना मुश्किल और आसमान धुंध में गुम। ऐसे में सरकार ने एक अनोखा कदम उठाया, क्लाउड सीडिंग, यानी ‘कृत्रिम वर्षा’ का सहारा लिया। उम्मीद थी कि बारिश की बूंदें न केवल धरती को ठंडक देंगी, बल्कि हवा में फैले PM2.5 और PM10 जैसे हानिकारक कणों को भी नीचे बैठा देंगी।
लेकिन यह प्रयोग पूरी तरह सफल नहीं हुआ। सवाल उठता है- आखिर क्लाउड सीडिंग क्या है, यह कैसे काम करती है, और दिल्ली में यह क्यों फेल हुई?
क्लाउड सीडिंग क्या है?
- क्लाउड सीडिंग एक वैज्ञानिक तकनीक है, जिसके तहत बादलों में कुछ विशेष रसायन (जैसे सिल्वर आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड, पोटैशियम आयोडाइड या ड्राई आइस) छोड़े जाते हैं।
- इन रसायनों का काम होता है, बादलों में पानी की सूक्ष्म बूंदों को आपस में मिलाना, जिससे वे बड़ी बनकर बारिश के रूप में गिर सकें।
- यह तकनीक उन इलाकों में उपयोगी होती है जहाँ बादल तो होते हैं पर बारिश नहीं होती। क्लाउड सीडिंग को ड्रोन, विमान, रॉकेट या ग्राउंड बेस्ड मशीनों से किया जाता है।
इस बार, सरकार ने IIT कानपुर के वैज्ञानिकों की मदद से क्लाउड सीडिंग का ट्रायल किया। उद्देश्य था-
दिल्ली में क्लाउड सीडिंग की जरूरत क्यों?
हर साल सर्दियों में दिल्ली की हवा जहरीली हो जाती है। दीपावली के बाद धुआं, पराली जलाना और ठंडी हवाओं की वजह से स्मॉग शहर को घेर लेता है।
कृत्रिम बारिश से प्रदूषण के कण नीचे बैठ जाएं
हवा की विषाक्तता कम हो
नागरिकों को राहत मिल
इस प्रक्रिया में सिल्वर आयोडाइड और नमक का मिश्रण बादलों में फ्लेयर्स के रूप में छोड़ा गया।
प्रक्रिया और प्रमुख तरीके
क्लाउड सीडिंग के तीन प्रमुख तरीके होते हैं –
- स्टेटिक क्लाउड सीडिंग – ठंडे बादलों में सिल्वर आयोडाइड या पोटैशियम आयोडाइड छोड़ा जाता है, जिससे बर्फ के क्रिस्टल बनते हैं और बारिश होती है।
- हाइग्रोस्कोपिक क्लाउड सीडिंग – गर्म और निचले बादलों में नमक (सोडियम क्लोराइड) का इस्तेमाल किया जाता है ताकि बड़ी पानी की बूंदें बनें।
- डायनेमिक क्लाउड सीडिंग – इसमें बादलों में ऊर्ध्वाधर वायु प्रवाह (updraft) को बढ़ाकर बारिश की मात्रा को बढ़ाने की कोशिश की जाती है।
इन प्रक्रियाओं में इस्तेमाल होने वाले प्रमुख रसायन हैं,
सिल्वर आयोडाइड, सोडियम क्लोराइड, पोटैशियम आयोडाइड, ड्राई आइस, और तरल प्रोपेन।
क्या हुआ दिल्ली की क्लाउड सीडिंग में?
- दिल्ली में 27-28 अक्टूबर 2025 को क्लाउड सीडिंग का ट्रायल हुआ।
- वैज्ञानिकों ने दो बार विमान से फ्लेयर्स छोड़े, लेकिन बादलों में नमी केवल 15-20% थी।
- आमतौर पर 50% से अधिक नमी होने पर ही यह तकनीक असर दिखाती है।
- परिणामस्वरूप, भारी बारिश तो नहीं हुई, लेकिन नोएडा-ग्रेटर नोएडा के कुछ इलाकों में हल्की बूंदाबांदी दर्ज की गई।
क्यों नहीं हुई बारिश?
- बादलों में पर्याप्त नमी की कमी
- मौसम संबंधी अनुकूलता का न होना
- हवा की दिशा और तापमान का असंतुलन
- सीडिंग के समय सीमित बादल घनत्व
- यह प्रयोग दिखाता है कि क्लाउड सीडिंग कोई “जादुई उपाय” नहीं, बल्कि वैज्ञानिक परिस्थितियों पर निर्भर प्रक्रिया है।
क्या कोई सकारात्मक असर हुआ?
- हालांकि भारी बारिश नहीं हुई, लेकिन प्रयोग वाले इलाकों में PM2.5 और PM10 के स्तर में कुछ कमी दर्ज की गई।
- विशेषज्ञों का कहना है कि यह परिणाम उत्साहजनक हैं, क्योंकि अगर नमी अधिक होती, तो बारिश की मात्रा भी बढ़ सकती थी।
- सरकार अब भविष्य में मौसम अनुकूल समय पर फिर से ट्रायल करने की योजना बना रही है, ताकि इस तकनीक का पूरा लाभ मिल सके।
उम्मीदें अभी बाकी
दिल्ली में क्लाउड सीडिंग का यह प्रयोग भले ही पूरी तरह सफल न रहा हो, लेकिन इसने एक नई दिशा जरूर दिखाई है।
यह दिखाता है कि प्रौद्योगिकी और प्रकृति साथ मिलकर मानव जीवन की बड़ी समस्याओं को हल कर सकते हैं बशर्ते मौसम भी साथ दे। भविष्य में, जैसे-जैसे भारत में मौसम पूर्वानुमान और तकनीकी उपकरण उन्नत होंगे, वैसे-वैसे क्लाउड सीडिंग जैसी पहलें प्रदूषण और सूखे जैसी चुनौतियों से निपटने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।

