Chipko Movement: आपने भारत के कई बड़े आंदलनों के बारे में तो सुना और पढ़ा होगा। इनमें देश की आजादी से लेकर सामाजिक मुद्दों के सुधार भी शामिल हैं। लेकिन क्या आप एक दिलचस्प आंदोलन के बारे में जानते हैं, जो पेड़ बचाने के लिए की गई थी। इस अनोखे आंदोलन की शुरूआत 26 मार्च 1974 में उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव में हुई थी। जानते हैं क्यों ये आंदोलन खास था और कैसे ये आंदोलन इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गई।
पहले जानते हैं ‘चिपको आंदोलन’ क्या है?
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ये एक महत्वपूर्ण आंदोलन था। 26 मार्च 2024 को इस आंदोलन को पूरे 53 साल हो गए हैं। इसी दिन उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव में ढाई हजार पेड़ों की नीलामी कर दी गई। ठेकेदार ने मजदूरों को जब पेड़ काटने का आदेश दिया तो वहां की महिलाएं पेड़ों से चिपक गईं। उन्होंने कहा कि वृक्षों को काटने से पहले उन्हें काट दिया जाए। इस आंदोलन की गूंज भारत ही नहीं दुनियाभर में सुनाई दी। पेड़ों से चिपककर उन्हें संरक्षण देने की वजह से ही ये आंदोलन चिपको आंदोलन कहलाया।
इन्होंने किया चिपको आंदोलन का नेतृत्व
चिपको आंदोलन (Chipko Movement) का नेतृत्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी और चंडीप्रसाद भट्ट ने किया। वृक्ष और जंगल बचाने का उनका ये अभियान चमोली जिले से शुरू होकर पूरे देश में फैल गया। उत्तराखंड में इस आंदोलन का बहुत ज्यादा प्रभाव देखने को मिला। हर जगह लोग पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ों से लिपट जाते थे।
महिलाओं ने निभाई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी
इस आंदोलन में महिलाओं ने भागीदारी काफी ज्यादा देखने को मिली। महिलाओं ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 27 महिलाओं ने गौरा देवी के नेतृत्व पेड़ों की सुरक्षा की। महिलाएं मजदूरों के पेड़ों तक पहुंचने से पहले ही वहां पहुंच गईं। पेड़ों से लिपटकर महिलाओं ने कहा कि ये पेड़ बाद में कटेंगे पहले हमें काटना होगा। जिसके बाद पेड़ काटने वाले मजदूरों को वापस जाना पड़ा।
पड़ों की कटाई पर लगा 15 वर्षों का प्रतिबंध
चिपको आंदोलन (Chipko Movement) देश भर में पेड़ों को बचाने का एक हथियार बन गया। बाद में यही आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार, तक चला और काफी सफल भी रहा। इस आंदोलन के बाद ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों तक रोक लगाने का आदेश दिया।
सुंदरलाल बहुगुणा को मिला सम्मान
चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाले सुंदरलाल बहुगुणा को सभी जगह काफी सम्मान मिला। उनके इस आंदोलन के लिए उन्हें दुनिया भर में वृक्षमित्र के नाम से पहचान मिली। बाद में उन्हें अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर संस्था ने 1980 में सम्मान दिया। यही नहीं उन्हें अपने जीवन काल में पर्यावरण रक्षा के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया।
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गौरा देवी बनीं ‘चिपको वुमन’
चिपको आंदोलन (Chipko Movement) के बाद गौरा देवी को भी चिपको वुमन गौरा देवी कहा जाने लगा। बता दें कि गौरा देवी का जन्म सन 1925 में लाता गांव में हुआ था। सिर्फ 12 साल की उम्र में उनका विवाह रैंणी के मेहरबान सिंह से हो गया। जब वो 22 साल की थी तब उनके पति का निधन हो गया। गौरा शुरूआत से ही पर्यावरण के संरक्षण के लिए काम कर रही थीं। उन्होंने अपने गाँव के महिला मंगल दल की भी अध्यक्षता की।
Positive सार
आज 53 साल बाद भी चिपको आंदोलन (Chipko Movement) का असर भारत में दिखाई देता है। इस आंदोलन ने एक ऐसी प्रथा की शुरूआत की जो ये बताता है कि वृक्ष हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। उन्हें दूर करने के बजाय उन्हें गले लगाना चाहिए।