AGRICULTURE: तमिलनाडु की इरुला जनजाति को मिल रहा है ‘जंगली लैटाना’ से कमाई का जरिया!

नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में पश्चिमी घाट की तलहटी में एक छोटा सा गांव है। जिसमें इरुला आदिवासी बस्ती के लोग लैंटाना से, कुर्सियां, टेबल, सोफा सेट और बुक शेल्फ, बनाते हैं। ये लोग लैंटाना अपने आसपास के जंगलों से इकट्ठा करते हैं। लैंटाना को दुनिया की दस सबसे खराब प्रजातियों में से एक माना गया है। जो भारत में देशी वनस्पतियों के लिए एक बड़ा खतरा है। लेकिन लैटाना से फर्निचर बनाने का काम आदिवासियों को कमाई का साधन उपलब्ध करा रहा है।

बेहतर आजीविका का जरिया

नगुट्टैयूर तमिलनाडु में नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में पड़ने वाले कोयंबटूर फॉरेस्ट सर्कल के पेरियानाइकनपालयम रेंज के भीतर पश्चिमी घाट के निचले ढलानों पर बसा एक गांव है। यहां इरुला जनजाति से संबंधित 40 परिवार रहते हैं। इन आदिवासियों को 45-दिवसीय पाठ्यक्रम दिया गया जिसका उद्देश्य गैर-लकड़ी वन उपज में मूल्य जोड़ना है।

लैटाना परियोजना

लैंटाना परियोजना के लिए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही कामिनी सुरेंद्रन द्वारा किए गए सात साल के काम का ही यह परिणाम है। कि आज तमिलनाडु का यह आदिवासी गांव अपनी आजिविका के लिए लैटाना का इस्तेमाल कर रहा है। कामिनी का कहना है कि “मैं अपनी पीएचडी कर रही थी और मेरा शोध पत्र सेनगुट्टैयूर गांव इरुलर आदिवासी महिलाओं के सशक्तिकरण और सतत विकास केंद्रित था। मैंने इस क्षेत्र के कई गाँवों का सर्वेक्षण किया, और पाया कि यह गाँव वास्तव में सुदूर और काफी अविकसित है।” जिन्हें संसाधन की जरूरत है।

क्या है लैटाना पौधा

लैंटाना का पौधा 1800 मीटर तक की ऊंचाई तक आसानी से पनपता है। लैटाना किसी भी परिस्थिति में एक बार पनपने के बाद बड़ी तेज़ी से फैलता जाता है। आजकल इसपर काफी रिसर्च किया जा रहा है। इसका उपयोग लकड़ी के फ़र्नीचर बनाने में भी किया जाता है।

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Dr. Kirti Sisodia

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