Manipur Art का सुंदर नमूना है ‘लोंगोपी पॉटरी’। जो खूबसूरत तो है ही साथ ही टिकाऊ भी है। हाल ही इन मिट्टी के बने बर्तनों की खूबसूरत कारीगरी कोयंबटूर में लगी शिल्प प्रदर्शनी में देखने को मिली। जिन्हें दो बहनों प्रेशली और फामशांगकी नगसैनाओ ने बनाया है। तमिलनाडू से लगभग 2000 किमी दूर पूर्वोत्तर की इस संस्कृति को दोनों बहनें भारत के कोने-कोने में पहुंचा रही हैं। दोनों बहने उखरुल जिले के लोंगपी गाँव की रहने वाली हैं।
बेहतरीन कारीगरी का नमूना है ‘लोंगोपी पॉटरी’
इन्हें बनाने में काफी मेहनत लगती है। क्योंकि काली मिट्टी से बने इन टिकाऊ कलाकृतियों के लिए चाक का उपयोग नहीं किया जाता है। इन्हें हाथ से बनाया जाता है। साथ ही ये पर्यावरण और स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टि से सुरक्षित हैं। काफी परिश्रम और बारीक काम के बाद इन कलाकृतियों को तैयार किया जाता है।
दोनों बहनें बताती हैं कि वे यह काम पिछले चार पीढ़ियों करती आ रही हैं । इनका ये लघु उद्योग अब इतना मशहूर हो चुका है कि इसकी शिल्प प्रदर्शनियों में इन बर्तनों की अच्छी खासी बिक्री हो जाती है। जिससे वे आर्थिक रुप से भी काफी मजबूत हुई हैं।
कैसे बनाई जाती है ‘लोंगोपी पॉटरी’
इस कला को मणिपुर की लोंगपी पॉटरी के नाम से जाना जाता है। जिसे बनाने की प्रक्रिया के बारे में इन बहनों ने बताया, कि- परिश्रमी आदिवासी महिलाएँ चटटानों के छोटे छोटे टुकड़ों को तोड़कर लाती हैं फिर उसे कुछ दिन सुखाकर उसका पाउडर बनाती हैं। बाद में इसमें लिशोन नामक एक नरम पत्थर मिला कर आटा जैसा गूंथ कर बर्तनों को आकार देकर सूखा लिया जाता है। एक हफ्ते सूखने के बाद इसे आग में पकाया जाता है। ये सारे काम हाथों से ही किये जाते हैं। बर्तनों को चमकाने के लिए जंगलों से मिली एक लता की बेरी के रस का उपयोग किया जाता है।
प्रेशली और फामशांगकी नगसैनाओ कहती हैं उन्हें इस बात का काफी गर्व है कि वे इन बर्तनों को बनाने और इस संस्कृति से जुड़ी जागरूकता को फैलाने का काम कर रही हैं ।