साल 2019 के लोकसभा election में female voting percent male voting percent से 0.17% ज्यादा थी। वहीं 2018 के स्टेट इलेक्शन में भी 5 राज्यों में female voters सबसे ज्यादा थे।
लेकिन आपको ये बात जानकर हैरानी होगी कि कुछ सालों पहले तक महिलाओं को मतदान का अधिकार ही नहीं था। सिर्फ पुरूष ही मतदान कर अपनी सरकार चुनते थे। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि महिलाएं आज अपने अधिकारों, मुद्दों और अलग मांगों के साथ सशक्त होकर आगे आई हैं। दरअसल इसके पीछे एक लंबी लड़ाई है जिसकी बागडोर सरोजिनी नायडू, रमाबाई रानडे और अबला बोस जैसी महिलाओं के हाथों में थी। इनमें अबला बोस ने एक अहम भूमिका निभाई अबला का जन्म समाज सुधारक और बड़े लीडर दुर्गामोहन दास के घर हुआ। पढ़े-लिखे परिवार में जन्मी अबला ने उस समय डॉक्टरी की। उन्होंने देखा कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में होने वाले चुनाव में सिर्फ कुछ वोटरों को ही मतदान करने की इजाज़त थी। इनमें महिलाएं शामिल नहीं थी। महिलाओं के वोटिंग का विरोध करने वाले लोग महिलाओं को कमतर और सार्वजनिक मामलों में अक्षम मानते थे। इसके अलावा कुछ सामाजिक लोग भी महिलाओं से भेदभाव और उनकी पर्दे में रहने की पैरवी कर रहे थे। अबला ने इस कुरीति को तोड़ने के लिए एक मुश्किल लड़ाई लड़ी, महिलाओं को जागरूक और एकजुट किया। 1917 में एडविन मोंटेग्यू मोंटेंग्यु-चेम्सफोर्ड सुधारों पर बातचीत के सिलसिले में भारत आए। कड़े विरोधों के बावजूद अबला उनसे मिलीं और भारत में महिलाओं के अधिकारों की बात रखी। फलस्वरूप महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार मिले। 1921 में बॉम्बे और मद्रास प्रांत महिलाओं को मताधिकार देने वाला पहला प्रांत बना और बंगाल ने 1925 में इसका पालन किया। महिलाओं को मतदान का अधिकार मिले 100 साल भी नहीं हुए, लेकिन अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और लोकतंत्र के लिए जिम्मेदारी को महिलाएं बखूबी निभा रही हैं जिसकी नींव सालों पहले अबला बोस ने रखी थी।