World Indigenous Day 2025: क्यों आदिवासी कहलाते हैं धरती के संरक्षक?

World Indigenous Day 2025: धरती से जुड़ी एक विरासत, जंगलों की गोद में बसी अनगिनत कहानियां… वो कहानिया जो जुड़ी हैं एक अदभुत संसार से, रहस्यों और रीतियों की तार से। आज अनसुनी गाथा में कहानी उन लोगों की जिनका जीवन प्रकृति की धड़कनों से बंधा है, और जो जंगलों और प्रकृति के संरक्षक हैं, “हमारे आदिवासी”  छत्तीसगढ़ की जनजाती।

9 अगस्त विश्व आदिवासी दिवस… एक दिन नहीं, बल्कि सदियों से उपेक्षित, लेकिन गौरवशाली परंपराओं को सम्मान देने का एक अवसर है। एक दिन जब हम उनके उस योगदान को याद करते हैं, जो उन्होंने न सिर्फ सांस्कृतिक धरोहर के रूप में, बल्कि प्रकृति के संतुलन और जैवविविधता की रक्षा में दिया है।

छत्तीसगढ़ के आदिवासी

छत्तीसगढ़, भारत का एक ऐसा राज्य, जहां हर जंगल, हर पहाड़ी और हर नदी, किसी न किसी आदिवासी जनजाति की कहानी कहती है। यहां 42 से भी ज्यादा आदिवासी जनजातियां निवास करती हैं, और हर जनजाति अपने साथ पिरोती है भाषा, रीति-रिवाज, त्योहारों और जीवन के रंगों की एक अलग ही दुनिया।

धरती की संतान

  • छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी जनजाति। बस्तर की धरती पर कोयतोर कहलाने वाले ये लोग आज भी प्रकृति की लय के साथ जीवन जीते हैं। उनका विश्वास, उनकी बोली और उनके लोकनृत्य सब में जंगल की आत्मा बसी है।
  • कोरबा, मारिया, हल्वा, कोरकू,  ये नाम सिर्फ जातीय पहचान नहीं हैं, बल्कि ये पूरी जीवनशैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। पहाड़ों में रहने वाले कोरवा हों या भूमियां या फिर मारिया जनजाति इनका हर पर्व, हर गीत, हर अनुष्ठान, धरती माता की पूजा से जुड़ा है।
  • बैगा, बिंझवार, और कमार जैसी जनजातियां आज भी जंगलों से संवाद करती हैं। ये सिर्फ लकड़ी या जड़ी-बूटियां नहीं इकट्ठा करते, ये प्रकृति की मर्यादाओं का पालन करते हैं। जंगल इनका घर है, और पेड़ इनके परिवार हैं।
  • कंवर, खैरवार, भैना, और भतरा जनजाति, खेती करना, मछली पकड़ना, शिकार, लोहारगिरी इन सबके बीच इन्होंने अपने पारंपरिक ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाया है।
  • बिरहोर, भुंजिया, अगारिया, और आसुर ये वो जनजातियां हैं जिनका जीवन भले ही आधुनिकता से दूर हो, लेकिन इनकी समझ, इनकी सहजता, इनका सामूहिक जीवन मानवता के सबसे सुंदर स्वरूपों में से एक है।
  • बिरजिया, धनवार, धुरवा, गदबा, कोल, कोया ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों में विशेष पहचान रखते हैं। कुछ मछुआरे हैं, कुछ किसान, कुछ कारीगर और कुछ पुरोहित भी। लेकिन सभी की एक समानता प्रकृति से जुड़ाव और संतुलित जीवन।

आदिवासियों की बोली-भाषा

छत्तीसगढ़ की जनजातियों की भाषा हल्बी, गोंडी, कोरकू, कुरूख, बिरजिया, परजी किसी गीत के सुरीले तान की तरह होती है जो छत्तीसगढ़ की धरती पर गूंजती एक सांस्कृतिक संगम की तरह हैं। ये भाषाएं सिर्फ शब्दों का संग्रह नहीं, ये उस ज्ञान का भंडार हैं जो हमारे जनजातीय जीवन की गहराई में समाई हुई हैं।

सौंता, सौरा, पाण्डो, मुण्डा, नगेसिया, ओरांव, और परधान जैसी जनजातियां सांस्कृतिक रूप से अत्यंत समृद्ध हैं। इनके गीत, गाथाएं, लोककथाएं, नृत्य और चित्रकला में छत्तीसगढ़ की आत्मा बोलती है।

जंगल के संरक्षणक, पारधी

इसी तरह छत्तीसगढ़ की एक और खास जनजाति है पारधी, ये आखेटक समुदाय है। जंगल में रहना, जंगल को पढ़ना और उसका सम्मान करना ये इनके जीवन का मूल है। आधुनिक शहरीकरण ने इन्हें हाशिए पर ला खड़ा किया है, लेकिन इनका ज्ञान आज भी अमूल्य है।

और जब बात आती है जनजाति और पर्यावरण संरक्षण की तो छत्तीसगढ़ की इन जनजातियों ने सदियों से अपने पारंपरिक ज्ञान से जैवविविधता की रक्षा की है। जड़ी-बूटियों की पहचान, जल स्रोतों का संरक्षण, परंपरागत कृषि पद्धतियां, बीजों का संरक्षण, ये सभी उनके जीवन के अभिन्न अंग हैं। वे जंगल काटते नहीं, जंगल उगाते हैं। वे जल स्रोतों को इस्तेमाल करते हैं, लेकिन उसे दूषित नहीं करते। छत्तीसगढ़ की विविधता, उसकी सांस्कृतिक परतें, उसकी आदिवासी पहचान ये सब मिलकर एक ऐसी भूमि का निर्माण करते हैं, जो प्रकृति और मानव के रिश्ते को सबसे सुंदर तरीके से परिभाषित करती है।

आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय असंतुलन और सांस्कृतिक पतन की चिंता कर रही है, छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति हमें सिखाती है कि टिकाऊ विकास सिर्फ तकनीक से नहीं, संवेदनशीलता और संतुलन से आता है।

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Rishita Diwan

Content Writer

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