आज भारतीय सिनेमा का बाजार दुनियाभर के सबसे महंगे सिनेमा व्यवसायों में से एक है। और ये देन है दादा साहब फालके की… जो भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाते हैं। उन्होंने भारतीय सिनेमा की नींव रखी और 1913 में राजा हरिशचंद्र नाम की एक फिल्म बनाई। इस फिल्म को भारत की पहली फिल्म होने का गौरव मिला है। भले ही फिल्म को दादा साहब फालके ने बनाई है, पर ये बात कम ही लोग जानते हैं, कि दादा साहब फालके की पत्नी सरस्वती बाई की वजह से यह फिल्म पूरी हो पाई। दरअसल सरस्वती बाई फिल्म की एडिटर थीं। उन्हें भारतीय सिनेमा की पहली एडिटर माना जाता है।
इन सबकी शरूआत तब हुई जब दादा साहब फालके ने मुंबई में अमेरिकी फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखी। उन्होंने फिल्म देखने के बाद पत्नी सरस्वती बाई से फिल्म बनाने की अपनी इच्छा जाहिर की। सरस्वती बाई ने न केवल उनके सपने का भावनात्मक समर्थन किया, बल्कि अपने गहने भी बेचे। ताकि वह सेसिल हेपवर्थ से फिल्म निर्माण की कला सीख सकें और फिल्म निर्माण के लिए उपकरण खरीद सकें।
जब दादा साहब की फिल्म ‘राजा हरिशचंद्र’ बननी शुरू हुई तब कोई भी महिला किरदार इस फिल्म के लिए नहीं मिली। तब उन्होंने अपनी पत्नी सरस्वती बाई को फिल्म की लीड रोल में कास्ट करने की सोची। पर सरस्वती बाई ने यह कहते हुए मना कर दिया कि- “मैं पहले से ही बहुत सी चीजों में शामिल हूं! अगर मैं अभिनय भी करूंगी, तो मैं अभी जो कर रही हूं वह सब कौन करेगा? ” दरअसल सरस्वती बाई ने यह इसलिए कहा- क्योंकि उन्होंने फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन का काम अपने हाथों में लिया था। इसके अलावा सरस्वती बाई फिल्म में पर्दे के पीछे की वह किरदार थीं, जिन्होंने सिनेमा के पहले दौर में ही यह साबित कर दिया कि -महिलाएं अपनी इच्छा शक्ति और काबिलियत (योग्यता) के दम पर कुछ भी कर सकती हैं। यह वह दौर वह था जब तकनीकी कामों के लिए महिलाएं कमतर आंकी जाती थीं। ऐसे में सरस्वती बाई साड़ी पहनकर बड़ी-बड़ी मशीनों से बड़ी सहज होकर काम कर लेती थीं। उन्होंने फिल्म से जुड़े हर छोटे-बड़े काम किए।
उन्होंने फिल्म के निर्माण में पोस्टर बनाने से लेकर फिल्म की एडिटिंग की। फिल्म डेवलपिंग केमिकल्स को मिलाने से लेकर, धधकती धूप में लाईट रिफ्लेक्टर के रूप में घंटों सफेद चादरों को पकड़ने का काम किया। इन सब कामों के अलावा सरस्वती बाई फिल्मों के काम के बाद लगभग 60 से 70 लोगों की फिल्म यूनिट के लिए खाना भी बनाती थीं। सरस्वती बाई की बनाई इस फिल्म की सबसे दिलचस्प बात यह भी थी, कि इस फिल्म में एक भी महिला कैरेक्टर नहीं थे। पुरुषों ने ही महिलाओं के भी किरदार निभाए थे। क्योंकि तब भारत में महिलाओं के लिए बाहर काम करना मुश्किल हुआ करता था और फिल्मों में काम करना तो कल्पना से परे था। लेकिन सरस्वती बाई एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने पुरुषों के बीच रहकर काम किया और महिलाओं के वर्चस्व को स्थापित किया।
एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है कि हर पुरुष की सफलता के पीछे एक महिला का हाथ होता है। दादा साहब फालके के मामले में उनकी पत्नी सरस्वती बाई फालके ने इस बात को सहीं साबित किया। भारत के पहले फिल्म निर्माता अपनी पत्नी के बिना भारत की पहली फिल्म नहीं बना पाते। फिल्मों में उनके योगदान के लिए IAWA ने सरस्वतीबाई दादा साहब फालके एसडीपी महिला अचीवर अवार्ड के नाम पर दुनिया भर की महिलाओं को पुरस्कार देने की पहल शुरू की।
यह पुरस्कार उन सफल महिलाओं को दिया जाता हैं जिन्होंने जीवन में अपने मिशन को सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सभी बाधाओं को पार करते हुए पूरा किया है।
उन्होंने फिल्म निर्माण के हर कदम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी मेहनत, दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति ने उन्हें भारतीय सिनेमा में अमर कर दिया।