भारतीय इतिहास इस बात का गवाह है, कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जितनी भूमिका पुरुष वीरों की रही, उतनी ही महिलाओं की भी भागीदारी रही है। फिर बात चाहे राज घराने की रानी लक्ष्मीबाई की हो या फिर आदिवासी क्षेत्रों से निकली गोंड रानी कमलापति की हो। ये सभी भारतीय महिलाओं की शक्ति, साहस और बल का प्रतीक बनकर पूरी दुनिया में उभरी। ऐसी ही वीर महिलाओं में से एक थीं रानी ताराबाई, वैसे तो ताराबाई को इतिहास में पहली पहचान छत्रपति शिवाजी की पुत्रवधु के रूप में मिली, लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि रानी ताराबाई ही वह शासिका थीं जिन्होंने अंग्रेजों से वापस मराठा साम्राज्य को छीना। यही नहीं उन्होंने अपनी सूझबूझ से पुन: मराठा शासन को स्थापित भी किया। ताराबाई शिवाजी के सर सेनापति हंबीरराव मोहिते की पुत्री थीं। 8 साल की छोटी सी उम्र में उनका विवाह छत्रपति शिवाजी के छोटे पुत्र राजाराम से हुआ। ये वही समय था जब औरंगजेब मराठा शासन पर कब्जा करना चाहता था। 1680 में छत्रपति शिवाजी की मृत्यु हो गई। उनकी मौत के बाद 1689 में औरंगज़ेब ने 15 हजार सिपाहियों के साथ रायगढ़ के किले पर कब्जा कर लिया। इस युद्ध के बाद रानी ताराबाई और उनके पति राजाराम रायगढ़ से बचकर निकलने में कामयाब रहे। साल 1700 में ताराबाई के पति, राजाराम का देहांत हो गया। इसी समय मराठाओं की बागडोर ताराबाई के हाथों में आई। ताराबाई युद्धनीति के साथ ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में भी निपुण थीं। मुगलों और उनका साथ देने वाले शाही घरानों के विरूद्ध कई लड़ाईयां लड़ीं। जिनमें प्रमुख रूप से दक्कन के छ: सूबों, मंदसौर एवं मालवा के सूबों, बरार और बड़ौदा की लड़ाईयों लड़ी। इन युद्धों से मराठा शासन को आर्थिक मजबूती मिली। एक लेख के अनुसार, मुग़लों के अधिकारी भीमसेन ने ताराबाई के लिए लिखा था, ‘ताराबाई अपने पति से ज़्यादा शक्तिशाली थीं। उनका शौर्य ऐसा था कि कोई भी मराठा नेता उनके निर्देश के बिना एक कदम तक नहीं उठाता था।’
ताराबाई उन मराठा शासकों में से एक थीं जिन्होंने गुरिल्ला युद्ध का भरपूर प्रयोग करके दुश्मनों को मात दी। उनके जीते जी औरंगज़ेब ने अपनी कई कोशिशों को अंजाम दिया लेकिन मराठा साम्राज्य को कभी भी मुगल साम्राज्य में नहीं मिला पाया। 1761 में रानी ताराबाई ने 86 वर्ष की उम्र में आखिरी सांस ली। ताराबाई ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, लेकिन उनकी निगरानी मे मराठा सूरज कभी अस्त नहीं हुआ।