भारत के छत्तीसगढ़ में बसे रामनामी समुदाय की कहानी आस्था और आत्म-सम्मान की एक प्रेरक गाथा है। इस समुदाय ने सामाजिक बहिष्कार और छुआछूत के खिलाफ अपनी अनूठी परंपरा से संघर्ष करते हुए भगवान राम के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा व्यक्त की है। आइए जानते हैं रामनामी समुदाय की इस अनोखी पहचान और उनके सांस्कृतिक प्रतीकों के बारे में।
रामनामी समुदाय की उत्पत्ति
रामनामी समुदाय की शुरुआत 19वीं शताब्दी में छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के चारपारा गांव से हुई थी। कहा जाता है कि इस समाज के लोगों को ऊंची जाति के लोगों ने मंदिरों में प्रवेश करने से रोक दिया। इसके विरोध स्वरूप इन लोगों ने अपने शरीर पर ‘राम-राम’ लिखवाना शुरू किया और अपने शरीर को ही भगवान का मंदिर मान लिया।
परंपरा और प्रतीक
- रामनामी समुदाय के पांच प्रमुख प्रतीक उनकी आस्था और परंपरा को दर्शाते हैं,
- जैतखांब- जैतखांब, जिसे भजन खांब भी कहा जाता है, सामुदायिक भजन और आध्यात्मिक गतिविधियों का केंद्र है। इसे सफेद रंग से रंगकर उस पर काले अक्षरों में ‘राम-राम’ लिखा जाता है।
- रामनामी वस्त्र- रामनामी वस्त्र सफेद कपड़े पर काले रंग से ‘राम-राम’ लिखे होते हैं। यह वस्त्र सादगी और श्रद्धा का प्रतीक है।
- मोर मुकुट- त्याग और शुद्धता का प्रतीक मोर मुकुट केवल रामनामी संत पहनते हैं।
- घुंघरू- भजनों के दौरान पहनने वाले घुंघरू आध्यात्मिक लय और सामुदायिक ऊर्जा का प्रतीक हैं।
- राम-राम गोदना (टैटू)- यह रामनामी समुदाय की सबसे विशिष्ट पहचान है। शरीर पर ‘राम-राम’ का गोदना आत्म-सम्मान और भगवान राम के प्रति उनकी अटूट आस्था का प्रतीक है। हालांकि, यह परंपरा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
राम भक्ति का अनोखा रूप
रामनामी समुदाय मंदिरों में नहीं जाते क्योंकि उनका मानना है कि उनका शरीर ही भगवान राम का घर है। उनकी भक्ति और साधना उनकी आत्मा से जुड़ी हुई है, और राम नाम उनके जीवन का आधार है।
वर्तमान में रामनामी समुदाय
आज रामनामी समुदाय की पहचान न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि देश और दुनिया में हो रही है। उनकी अनूठी परंपराएं और प्रतीक भारतीय संस्कृति और आस्था का एक विशेष हिस्सा हैं।
राम का नाम एक पहचान
रामनामी समुदाय की कहानी हमें बताती है कि कैसे आस्था और आत्म-सम्मान एक समाज को सामाजिक बाधाओं से ऊपर उठाकर प्रेरणा का प्रतीक बना सकते हैं। यह उनकी परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने का समय है।