जापान में वर्ल्ड एक्सपो 2025 में छत्तीसगढ़ पवेलियन में कला और हस्तशिल्प प्रमुख आकर्षण रहे। यहां बस्तर की 4,000 साल पुरानी GI-टैग्ड ढोकरा कला को उसकी कच्ची और पारंपरिक सुंदरता के लिए सराहा गया। तो क्या आप तैयार हैं ढोकरा कला के बारे में जानने के लिए?
ढोकरा कला भारत की सबसे प्राचीन और अनोखी मेटल कास्टिंग परंपराओं में से एक है। अगर ये सोचा जाए कि ये कला जन्मी कहां तो इसका उत्तर है पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में। लेकिन वर्तमान में इसकी सबसे दमदार पहचान छत्तीसगढ़ है। खासकर बस्तर के कोंडागांव में।
ढोकरा कला की खासियत है, देहाती (rustic) फिनिश, महीन पैटर्न, और हर पीस का यूनिक होना। जब आप इस कला को करीब से देखेंगे तो पाएंगे कि कोई दो कलाकृतियाँ बिल्कुल एक जैसी नहीं बनतीं।
अगर आपने कभी मोहनजोदड़ो की डांसिंग गर्ल मूर्ति देखी है? तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छत्तीसगढ़ की ढोकरा कला में भी पीढ़ियों से वैसी ही डांसिंग गर्ल की मूर्तियाँ बनती आई हैं। यानी इस कला का इतिहास 4,000 साल से भी पुराना है।
सदियों से ढोकरा/दामर और घढ़वा जनजातियों ने इस धरोहर को संजोकर रखा है। और इसकी विशिष्टता को मान्यता मिली 2014 में, जब ‘बस्तर ढोकरा’ को GI टैग दिया गया।”
ढोकरा क्यों खास है?
ढोकरा कला सिर्फ एक शिल्प नहीं, बल्कि जीविका, परंपरा और पहचान का जरिया है। ये एक लिविंग हेरिटेज है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक और प्रायोगिक रूप से आगे बढ़ती रही है।
- ढोकरा कला में गैर-लौह धातु खासकर पीतल और कांसा का इस्तेमाल होता है।
- सबसे पहले मिट्टी से मूर्ति का कोर बनाया जाता है।
- फिर उस पर रेज़िन तेल और मोम की परत चढ़ाई जाती है।
- Coiling तकनीक से बारीक डिज़ाइन उकेरे जाते हैं।
- इसके बाद मूर्ति पर मिट्टी की कई परतें चढ़ाकर सांचा तैयार होता है।
- जब सांचा गर्म किया जाता है, तो मोम पिघलकर निकल जाती है और अंदर खाली जगह रह जाती है।
- यहीं डाली जाती है पिघली हुई धातु। ठंडा होने पर धातु मूर्ति का आकार ले लेती है।
- और आखिर में सांचा तोड़कर मूर्ति को बाहर निकाला जाता है।
- इस खास प्रक्रिया के कारण हर ढोकरा मूर्ति यूनिक होती है।
ढोकरा कला के डिज़ाइन और थीम्स की बात करें तो ढोकरा की हर कृति एक जीवित चित्र है, जो प्रकृति, पूजा और लोकजीवन से बुनी हुई। इनमें हाथी, घोड़े, बैल, मछलियाँ और उल्लू दिखाई देते हैं। तो कहीं देवी-देवता, लोकदेव, शिकारी, नर्तक, दुल्हा-दुल्हन, और यहाँ तक कि बस्तर दशहरा की झलक भी।
लंबी मानव आकृतियां, बारीक कुंडलियाँ, रस्सीनुमा पैटर्न, हर डिज़ाइन में एक खास लय और समरूपता मिलती है।
आज ढोकरा कला सिर्फ मूर्तियों तक सीमित नहीं है। दीपदान, मुखौटे, घंटियाँ, आभूषण, यहां तक कि आज की जरूरतों से जुड़ी यूटिलिटी आइटम्स भी बनती हैं। जो यह इस बात का प्रमाण है कि छत्तीसगढ़ की यह पारंपरिक कला समय के साथ तालमेल बिठा रही है।
बस्तर और कोंडागांव के शिल्पकारों के क्लस्टर्स अपने जटिल डिज़ाइनों और फिनिशिंग के लिए देश-विदेश में मशहूर हैं। इन्हीं में से एक वरिष्ठ शिल्पी पंडीराम मंडावी को पद्मश्री सम्मान भी मिल चुका है। उनका सम्मान सिर्फ एक कलाकार का नहीं बल्कि पूरे समुदाय की पहचान है।
हज़ारों परिवार आज इस कला से जुड़े हैं। कभी घर-आधारित यूनिट्स में, कभी कुटीर उद्योग या स्व-सहायता समूहों में। इनकी कृतियां आपको आसानी से स्थानीय हाट-बाज़ार में, बस्तर दशहरा में, शिल्प मेलों और अब ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स पर मिल जाएंगी। आज भी बस्तर और कोंडागांव के शिल्पकार खुले आंगन की भट्ठी, मिट्टी और मोम से काम करते हैं। ढोकरा कला… छत्तीसगढ़ की आत्मा है। जो ये सिखाती है कि धरोहर सिर्फ अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की पहचान भी है। और जब आप ढोकरा कला का कोई पीस घर लाते हैं, तो आप बस्तर की एक जीवित कथा अपने साथ लाते हैं।