Birsa Munda: जब भारत में युवा क्रांतिकारियों की बात होती है तो सहसा ही मन में वीर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस जैसे वीरों के नाम सामने आते हैं। लेकिन कम ही लोग इस युवा क्रांतिकारी के बारे में जानते है। जिसने 1900 के आस-पास ही अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन की शुरूआत कर दी थी। ये वो दौर था जब गांधी जी भी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे। आज की अनसुनी गाथा में जानेंगे हम वीर बिरसा मुंडा की कहानी। जिन्होंने अंग्रेजों से न सिर्फ भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी बल्कि जल-जंगल-जमीन और धर्मांतरण से जुड़े आदिवासी अधिकारों के हित को भी सामने रखा और स्वतंत्रता आंदोलन में आदिवासियों के नेतृत्व का चेहरा बन गए।
बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन
1875 के दशक में झारखंड के बीहड़ आदिवासी क्षेत्र उलिहातु में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ। उस दौर में इस जगह पर अंग्रेज आदिवासियों के जमीन पर अपना हक जमा रहे थे। इसके साथ ही अंग्रेज यहां काफी मात्रा में आदिवासियों को धर्म बदलने पर मजबूर कर रहे थे।
पिता चाहते थे पढ़-लिख जाएं बिरसा मुंडा
ऐसे में एक गरीब परिवार में जन्में बिरसा मुंडा (Birsa Munda) के पिता चाहते थे कि उनके बेटे को अच्छी शिक्षा मिले। इसीलिए उन्होंने गोस्नर इवेंजेलिकल लुथरन चर्च स्कूल में बिरसा का दाखिला करवाया। कई किताबों में इस बात पर जोर दिया जाता है कि बिरसा के पिता और चाचा ईसाई धर्म अपना चुके थे। लेकिन कुछ किताबों में इसका खंडन किया गया है कि बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में यह सोचकर भर्ती किया था कि वहाँ अच्छी पढ़ाई होगी लेकिन स्कूल में ईसाईयत के पाठ पर जोर दिया जाना बिरसा को रास नहीं आया।
अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों को किया संगठित
1890 के आस-पास अंग्रेजों का डर ज्यादा बढ़ने लगा। अंग्रेज चालाकी से आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल करने लगे। हालाँकि आदिवासी विद्रोह करते थे लेकिन उन पर बल प्रयोग कर उन्हें मारा-पीटा और डराया जाता था। जिसकी वजह से आदिवासी विद्रोह को कुछ ही दिनों में दबा दिया जाता था।
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ये सब देखकर बिरसा मुंडा (Birsa Munda) विचलित हो गए और उन्होंने 1895 में अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने की ठानी। बिरसा मुंडा का ये सिर्फ विद्रोह नहीं था। ये आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था।
पिछले सभी विद्रोह से सीखते हुए, बिरसा मुंडा ने पहले सभी आदिवासियों को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ ‘उलगुलान’ विद्रोह छेड़ दिया। जिसका अर्थ था महान विद्रोह। उन्होंने अपने लोगों को संगठित किया और अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया।
आदिवासियों के नेता बनें बिरसा
1899-1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह में कई गांवों के आदिवासी शामिल हुए और उन्होंने अपनी जमीन और अधिकारों के लिए संघर्ष किया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासियों ने कई जगहों पर अंग्रेजों के खिलाफ हमला किया और उनकी संपत्तियों को नष्ट किया। लेकिन अंग्रेजों की सेना और ताकत के सामने उनका संघर्ष आसान नहीं था। अंग्रेजों ने बिरसा को पकड़ने के लिए पूरी ताकत लगा दी और अंततः उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया।
अंग्रेजों ने बिरसा को धोखे से किया गिरफ्तार
बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की गिरफ्तारी को लेकर एक दिलचस्प किस्सा इतिहास में हमेशा याद किया जाता है। दरअसल बिरसा मुंडा अंग्रेजों के लिए एक बड़ा सिर दर्द थे। उनके क्रांति ने आदिवासियों के मन से अंग्रेजों के डर को खत्म करने का काम किया था। इसीलिए जब बिरसा मुंडा गिरफ्तार किए तो अंग्रेजों ने आदिवासियों के मन में डर बिठाने के लिए बिरसा मुंडा को जंजीरों में बांधकर पैदल अदालत ले जाने का फैसला किया। लेकिन अंग्रेजों का ये पैंतरा काम नहीं आया। बिरसा मुंडा को देखने भीड़ उमड़ गई, उनके जोश ने लोगों को बल दिया और अदालत तक भीड़ इतनी पहुंची कि पुलिस को उन्हें संभालना मुश्किल हो गया।
बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने के कुछ दिनों बाद ही उनकी रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई और बिरसा शहीद हो गए।
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भगवान मानते हैं आदिवासी
बिरसा मुंडा की मृत्यु के बाद भी उनका संघर्ष और बलिदान आदिवासी समाज के लिए प्रेरणा बना रहा। उनकी वीरता और संघर्ष ने आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने का साहस दिया। आज भी बिरसा मुंडा को “धरती आबा” यानी धरती पिता के रूप में सम्मानित किया जाता है। उनके नाम पर झारखंड में कई स्थानों, संस्थानों और संगठनों का नामकरण किया गया है। भारत में उनकी याद में हर साल जनजाति गौरव दिवस मनाया जाता है।