भारत भूमि में कई वीर सपूत और वीरांगनाएं हुई हैं, जिन्होंने अपनी माटी के लिए अपना खुद को न्यौछावर कर दिया। आज की कहानी भी ऐसी ही वीरांगना बिलासा देवी की है, जिन्होंने अपने शौर्य और पराक्रम से अपनी मातृभूमि की न सिर्फ रक्षा की बल्कि अपनी कुर्बानी भी दी।
केंवट समुदाय से आती थीं बिलासा
छत्तीसगढ़ की धरती में सीची गई बिलासा देवी, बिलासा देवी केंवट समुदाय की एक साहसी महिला थीं। केंवट समुदाय परंपरागत रूप से मछली पकड़ने और शिकार करने में माहिर था। महिलाओं और पुरुषों को यहाँ समान अधिकार प्राप्त थे और दोनों ही शिकार और जीवनयापन के दूसरे कार्यों में बराबर की भागीदारी निभाते थे। इसी समुदाय में जन्मी बिलासा बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं। वो कुश्ती, तलवारबाजी, धनुष-बाण, भाला फेंकने और नौकायन जैसी कलाओं में निपुण थीं।
उनकी बहादुरी और कुशलता ने उन्हें एक योद्धा के रूप में खड़ा कर दिया। जंगलों में रहने वाले जंगली जानवरों और बाहरी आक्रमणकारियों से लड़ना उनके जीवन का हिस्सा था। लेकिन उनका पराक्रम तब पूरे राज्य में प्रसिद्ध हो गया, जब उन्होंने राजा की जान बचाई।
कल्चुरी वंश से जुड़ी है कहानी
दरअसल 16वीं शताब्दी में छत्तीसगढ़ की राजधानी रतनपुर हुआ करती थी और यहाँ कलचुरी वंश के राजा कल्याण साय का शासन था। उन दिनों जंगलों में शिकार करना राजाओं का प्रमुख शौक होता था। एक दिन राजा कल्याण साय अपने सैनिकों के साथ शिकार के लिए निकले। लेकिन वन्य जीवों का पीछा करते-करते वो घने जंगल में अकेले पड़ गए और उनके सैनिक पीछे छूट गए।
इसी दौरान एक जंगली सूअर ने उन पर हमला कर दिया। राजा घायल होकर ज़मीन पर गिर गए और जोर-जोर से कराहने लगे। संयोग से उस समय बिलासा वहीं से गुजर रही थीं। उन्होंने बिना समय गंवाए अपने हथियारों से जंगली सूअर का सामना किया और उसे मार गिराया। इसके बाद वो राजा को अपने गाँव ले गईं जहां गांव वालों की मदद से उनका उपचार किया।
राजा के दरबार में किया था कला प्रदर्शन
राजा कल्याण साय उनकी बहादुरी और सेवा से बहुत प्रभावित हुए। जब वो पूरी तरह स्वस्थ हो गए, तो उन्होंने बिलासा और उनके पति बंसी को अपने दरबार में बुलाया। राजा के दरबार में बिलासा ने धनुष-बाण चलाने और बंसी ने भाला फेंकने की कला का प्रदर्शन किया। इससे प्रभावित होकर राजा ने उन्हें अरपा नदी के दोनों किनारों की जागीर सौंप दी। यही वह स्थान था, जिसने बाद में बिलासपुर शहर का रूप ले लिया।
दिल्ली में दिखाया पराक्रम
बिलासा की बहादुरी की चर्चा सिर्फ रतनपुर तक ही सीमित नहीं रही। इसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची, जहाँ उस समय मुगल बादशाह जहांगीर का शासन था। उन्होंने राजा कल्याण साय को अपने दरबार में आमंत्रित किया। राजा अपने साथ बिलासा और अपने दूसरे वीर सैनिकों को लेकर दिल्ली पहुंचे।
वहाँ एक प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, जिसमें दिल्ली के पराक्रमी योद्धाओं के साथ बिलासा का भी मुकाबला हुआ। उन्होंने अपनी वीरता से सबको चौंका दिया। हर मुकाबले में उन्होंने जीत हासिल की, जिससे उनकी बहादुरी की ख्याति पूरे देश में फैल गई।
समय बीतता गया, और एक दिन बिलासा की नगरी पर बाहरी शासकों ने हमला कर दिया। इस युद्ध में उनके पति बंसी वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन बिलासा ने हार नहीं मानी। उन्होंने खुद सेना का नेतृत्व किया और मैदान में उतर गईं।
हालांकि, शत्रु सेना अधिक संख्या में थी और अंततः बिलासा देवी भी वीरगति को प्राप्त हुईं। जब राजा कल्याण साय को इस घटना की जानकारी मिली, तो वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने बड़ी सेना के साथ दुश्मनों पर हमला कर उन्हें खदेड़ दिया।
इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर दर्ज
बिलासा देवी की वीरता को याद रखने के लिए बिलासपुर शहर का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया। 1902 के गजेटियर में भी इसका उल्लेख मिलता है कि बिलासपुर का नाम एक केवट (निषाद) महिला बिलासा के नाम पर पड़ा।
आज भी बिलासा देवी को छत्तीसगढ़ में देवी स्वरूप मानकर पूजा जाता है। उनकी स्मृति में बिलासपुर में एक आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है। इसके अलावा, उनके नाम पर कॉलेज, अस्पताल, रंगमंच, पार्क और कई दूसरे संस्थान भी हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार हर साल मत्स्य पालन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को ‘बिलासा देवी पुरस्कार’ भी देती है। बिलासपुर एयरपोर्ट का नाम भी ‘बिलासा देवी केवट एयरपोर्ट’ रखा गया है। बिलासा देवी न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे देश की उन वीरांगनाओं में से एक हैं, जिन्होंने अपने साहस, नेतृत्व और निडरता से समाज में नई पहचान बनाई। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि अगर इरादे मजबूत हों, तो कोई भी बाधा हमें रोक नहीं सकती।