Bastar Queen Prafulla Kumari: बात एक ऐसी रानी की है जो न सिर्फ भारत के सबसे पुराने राजवंशों में से एक की उत्तराधिकारी थीं, बल्कि जिन्होंने अपनी रियासत की अस्मिता की रक्षा के लिए अंग्रेजी हुकूमत को सीधी चुनौती दी। वो रानी जिसने मात्र 11 वर्ष की उम्र में राजगद्दी संभाली, लेकिन शासन की समझ, त्याग और नेतृत्व में किसी भी अनुभवी शासक से कम नहीं थीं। ये कहानी है बस्तर की प्रथम महिला शासिका “महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी” की।
राजसी शुरुआत
महारानी प्रफुल्ल कुमारी का जन्म 1910 में बस्तर के महाराजा रूद्रप्रताप देव और रानी कुसुमलता के घर हुआ। बचपन में ही मां और भाई को खो देने के बाद उनका पालन-पोषण सौतेली मां चंद्रकुमारी देवी ने किया। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने अंग्रेजी शिक्षिकाओं से पाई, लेकिन इसके बावजूद उनमें भारतीयता की जड़ें गहराई तक समाई रहीं।
11 साल की महारानी
1921 में राजा रूद्रप्रताप की असामयिक मृत्यु के बाद, बस्तर की राजगद्दी खाली हो गई। पुत्र न होने के कारण यह सवाल उठा कि शासन किसके हाथों में जाए।
बस्तर के आदिवासी जनता ने रानी की मांग की। उन्होंने जब यह ऐलान किया कि अंतिम संस्कार तभी होगा जब राजकुमारी प्रफुल्ल सिंहासन पर बैठेंगी, तो 11 वर्ष की उम्र में प्रफुल्ल कुमारी को राजगद्दी पर बिठाया गया। बाद में 1922 में अंग्रेजों ने भी उन्हें रानी के रूप में मान्यता दी।
रानी से महारानी तक का सफर
1927 में उनका विवाह मयूरभंज के प्रफुल्ल चंद्र भंजदेव से हुआ। 1933 में उन्हें ‘महारानी’ की उपाधि मिली। यही वह दौर था जब बस्तर में एक महिला ने पहली बार प्रशासन और जनसेवा का जिम्मा उठाया।
शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवशास्त्र
कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मानवशास्त्र में मास्टर्स करने वाली महारानी बालिका शिक्षा की जबरदस्त समर्थक थीं। उनके प्रयासों से बस्तर में कई स्कूल खोले गए। उन्होंने 1935 में बस्तर जिला अस्पताल की नींव रखी, जो आज “महारानी अस्पताल” के नाम से जाना जाता है।
अंग्रेजों से टकराव और साजिशें
महारानी प्रफुल्ल ने अंग्रेजों की उस योजना को चुनौती दी जिसमें वे बैलाडिला की लौह खदानें हैदराबाद के निजाम को सौंपना चाहते थे। उन्होंने टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा से खनन के लिए चर्चा की, लेकिन अंग्रेजों को यह पसंद नहीं आया।रानी के राजभत्ता में कटौती की गई, उन्हें ब्रिटिश हितों में काम करने का प्रस्ताव मिला जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
एक रहस्यमयी अंत
1936 में इलाज के बहाने उन्हें लंदन भेजा गया जहां उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। इतिहासकार मानते हैं कि यह एक योजनाबद्ध हत्या थी। रानी के निधन के बाद उनके पुत्र प्रवीरचंद्र भंजदेव बस्तर के महाराजा बने।
आज भी जीवित हैं रानी
बस्तर की जनता आज भी महारानी प्रफुल्ल कुमारी को ‘बाबीधनी’ कहकर श्रद्धा से याद करती है। उन्होंने साबित किया कि नेतृत्व उम्र का मोहताज नहीं होता और देशप्रेम किसी उपाधि का नहीं, आत्मा का स्वभाव होता है।
महारानी प्रफुल्ल कुमारी नारी नेतृत्व, साहस और जनसेवा की मिसाल थीं। उन्होंने सत्ता को अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व माना और उस उत्तरदायित्व को अपने जीवन की अंतिम सांस तक निभाया।