Bastar freedom movement: भारत के इतिहास में 1857 के सिपाही विद्रोह को स्वतंत्रता संग्राम की पहली चिंगारी माना जाता है, लेकिन इसके ठीक एक वर्ष पहले छत्तीसगढ़ की धरती पर आज़ादी की लौ पहले ही जल चुकी थी। यह कहानी है बस्तर के उन जनजातीय नायकों की, जिनका संघर्ष गौरव, अस्मिता और स्वाधीनता का प्रतीक है।
1856 की लिंगागिरी क्रांति, जिसे छत्तीसगढ़ का ‘महान मुक्ति संग्राम’ भी कहा जाता है, भारतीय इतिहास के उन अध्यायों में से है जिन्हें अक्सर पाठ्यपुस्तकों में पर्याप्त स्थान नहीं मिल पाया।
उत्पीड़न से उपजा प्रतिरोध
1854 में जब बस्तर क्षेत्र नागपुर के भोंसले शासन से सीधे अंग्रेजों के नियंत्रण में आया, तभी से शोषण का दौर शुरू हो गया। यह शोषण केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से आदिवासी अस्तित्व पर सीधा प्रहार था।
अंग्रेजों की भू-राजस्व नीति का अत्याचार
- ब्रिटिश प्रशासन ने मनमाने और अत्यधिक कर लागू कर दिए।
- आदिवासी समुदाय के पारंपरिक भूमि अधिकार छीन लिए गए और वे अपनी ही ज़मीन पर मज़दूर बनने को मजबूर हो गए। यह कदम उनके पीढ़ियों पुराने जीवन तंत्र पर सीधा हमला था।
जंगलों पर अंग्रेजों का एकाधिकार
- जंगल आदिवासी जीवन की रीढ़ थे, लेकिन अंग्रेजों के लिए वे सिर्फ राजस्व का स्रोत बन गए।
- वनोपज संग्रह, शिकार और जंगल उपयोग पर पाबंदी ने आदिवासी जीवनशैली को पूरी तरह जकड़ लिया।
जबरन बंधुआ मज़दूरी
- ब्रिटिश अधिकारियों ने आदिवासियों को बिना वेतन या नाममात्र के वेतन पर काम करवाना शुरू किया।
- शोषण और अन्याय की इन नीतियों ने विद्रोह की नींव मजबूत कर दी।
धुरवाराम माड़िया
लिंगागिरी तालुका के तालुकेदार धुरवाराम माड़िया ने इस संघर्ष का नेतृत्व संभाला। वह केवल एक नेता नहीं, बल्कि माड़िया और दोरला जनजातियों के बीच सम्मान, विश्वास और स्वाभिमान के प्रतीक थे। उन्होंने महसूस किया कि यह लड़ाई सिर्फ ज़मीन की नहीं, बल्कि अस्तित्व और आत्म-सम्मान की है। उनके आह्वान पर लगभग 2000 जनजातीय योद्धा एकजुट हुए और वनों की भौगोलिक जानकारी का इस्तेमाल करते हुए गोरिल्ला युद्ध शुरू किया।
चिंतलनार का निर्णायक युद्ध
लिंगागिरी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था 3 मार्च 1856 का चिंतलनार युद्ध। आदिवासी योद्धाओं ने धनुष-बाण और पारंपरिक हथियारों के साथ अंग्रेजी सेना को चुनौती दी। लेकिन अंग्रेजों की उन्नत हथियार व्यवस्था और क्रूर दमन नीति के सामने संघर्ष टिक नहीं सका। ब्रिटिश सैनिकों ने विद्रोहियों के परिवारों को बंदी बनाकर अत्याचार किए।
धुरवाराम माड़िया का बलिदान
सिर्फ दो दिन बाद, 5 मार्च 1856, वीर योद्धा धुरवाराम माड़िया को फांसी दे दी गई। इसके बाद यदोराव और बाबूराव ने संघर्ष जारी रखा, लेकिन अंततः उन्हें भी मृत्युदंड दे दिया गया। विद्रोह को छल से कुचल दिया गया, लेकिन यह आग कभी बुझी नहीं, यह आगे चलकर 1910 के भूमकाल आंदोलन सहित आने वाले संघर्षों का प्रेरक स्रोत बनी।
स्वतंत्रता की चेतना का बीज
लिंगागिरी क्रांति भले ही अपने तत्काल उद्देश्य में सफल न हो पाई हो, लेकिन इसने बस्तर में स्वतंत्रता की चेतना को जन्म दिया। यह विद्रोह इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी समाज ने अंग्रेजी अत्याचार को सबसे पहले पहचाना और सबसे पहले उसका प्रतिरोध किया।
जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय
छत्तीसगढ़ सरकार अपने इन वीरों के योगदान को सम्मान देने के लिए नवा रायपुर में एक भव्य जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय विकसित कर रही है।
इसका उद्देश्य है-
- धुरवाराम माड़िया सहित जनजातीय नायकों की गाथा को संरक्षित करना
- शोध को बढ़ावा देना
- आने वाली पीढ़ियों को बस्तर के स्वतंत्रता संग्राम के महत्व से परिचित कराना
- यह संग्रहालय छत्तीसगढ़ की जनजातीय अस्मिता और स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत का जीवंत दस्तावेज बनेगा।
1856 का महान मुक्ति संग्राम हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता और न्याय के लिए संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता। धुरवाराम माड़िया और उनके साथियों का बलिदान आदिवासी गौरव, स्वाधीनता की इच्छा और अटूट साहस का प्रतीक है।

