‘भारत छोड़ो आंदोलन’ वह आंदोलन था, जिसके बाद भारतीयों ने अंग्रेजों को भारत की ज़मीं से उखाड़ फेंका। और इसी आंदोलन में नायिका बनकर उभरीं अरुणा आस़फ अली। जिन्होंने न सिर्फ आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया बल्कि मानवीय अधिकारों की पैरवी भी की। और इसीलिए उन्हें ‘ग्रांड ओल्ड लेडी’ कहा जाता है।
बेहद पढ़े-लिखे बंगाली ब्राह्मण परिवार से संबंध रखने वाली अरुणा का, साल 1909 को तत्कालीन ब्रिटिश पंजाब के अधीन कालका गांव में 16 जुलाई को जन्म हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर और नैनीताल में पूरी हुई। स्नातक करने के बाद अरुणा कलकत्ता के गोखले मेमोरियल स्कूल में शिक्षक के तौर पर नौकरी करने लगीं। बाद में उनकी मुलाकात 23 साल बड़े आसफ़ अली से हुई। जिनसे उन्होंने परिवार के खिलाफ जाकर विवाह कर लिया। आसफ़ अली इलाहाबाद में कांग्रेस पार्टी के बड़े लीडर थे और स्वतंत्रता के आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।
आस़फ अली से विवाह के बाद अरुणा सक्रिय रुप से स्वतंत्रता आंदोलनों से जुड़ीं। साल 1930 की बात है, जब नमक सत्याग्रह के दौरान होने वाली सार्वजनिक सभाओं में भाग लेने की वजह से अरुणा आसफ़ अली को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद गांधी-इर्विन समझौते में यह तय किया गया, कि सभी राजनैतिक क्रांतिकारियों के अंग्रेज रिहा करेंगे। लेकिन अरुणा को जेल से रिहा नहीं किया गया। अरुणा स्वतंत्रता आंदोलनों का समर्थन जेल से तो कर ही रही थीं साथ ही उन्होंने मानवीय अधिकारों की लड़ाई भी लड़ी। दरअसल तिहाड़ में बंद कैदियों के साथ अंग्रेजी सेना बर्बरता से पेश आ रही थी। उन्हें व्यक्तिगत यातनाएं दी जा रही थी। जिसका अरुणा ने खुलकर विरोध किया और जेल में ही भूख हड़ताल की। इस बात से अंग्रेज बौखला गए और उन्होंने अरुणा को एकांत कारावास की सजा सुनाई।
गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद अरुणा को जेल से रिहा किया गया। और यही वह समय था जब उन्होंने एक बड़ी भूमिका निभाई। 8 अगस्त, 1942 को बंबई सत्र के दौरान अंग्रेजों को भारत से बाहर करने का संकल्प लिया गया। इस सत्र में मौजूद सभी आंदोलनकारियों को अंग्रेजी सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। जिसके बाद अरुणा आसफ अली ने सत्र की कमान संभाली। उन्होंने बंबई के ग्वालिया टैंक में भारत का झंडा फहराकर भारत छोड़ो आंदोलन की अगुवाई की। इस दौरान अरुणा आसफ अली को गिरफ्तार करने का निर्देश जारी हुआ। अंग्रेजों ने उनकी संपत्ति अपने अधीन कर बेच दी लेकिन उन्होंने हार नहीं मानीं। उन्होंने राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर ‘इंकलाब’ नामक मासिक समाचार पत्र का संपादन किया। बाद में अंग्रेजी सरकार ने अरुणा आसफ अली की सूचना पर 5,000 का इनाम भी रखा। इसी बीच अरुणा आसफ अली की तबीयत बिगड़ गई, तब महात्मा गांधी ने उन्हें पत्र लिखकर आत्मसमर्पण करने और आत्मसमर्पण के एवज में मिलने वाली धनराशि को हरिजन अभियान के लिए उपयोग करने की सलाह दी। साल 1946 में जब उन्हें गिरफ्तार करने का वारंट रद्द किया गया तब अरुणा आसफ अली ने खुद को आत्मसमर्पित किया।
भारत की आजादी के बाद अरुणा ने भारतीय समाज को दिशा देने के लिए काम किया। वे 1958 में दिल्ली की पहली मेयर बनीं। और कई समाचार पत्रों का प्रकाशन भी किया ताकि समाज में बढ़ रही कुरीतियां खत्म हों और महिला शिक्षा, समानता को एकरुपता मिले। 29 जुलाई, 1996 को अरुणा आसफ़ अली ने आखिरी सांस ली। आज अरुणा आसफ़ अली को भारत छोड़ो आंदोलन की नायिका के रूप में याद किया जाता है। वर्ष 1975 में अरुणा आसफ़ अली को शांति और सौहार्द के क्षेत्र में लेनिन पुरस्कार दिया गया। इसके बाद 1991 में अंतरराष्ट्रीय ज्ञान के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार, 1992 में उन्हें पद्म विभूषण और 1997 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत-रत्न सम्मानित किया गया।