Chemical fertilizer: ऐसे कम हो सकता है कैमिकल फर्टिलाइज का उपयोग

Chemical fertilizer:  कृषि प्रधान देश होने की वजह से भारत की बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का बड़ा योगदान है। लेकिन आज के समय में खेती पूरी तरह से कमर्शियल हो चुकी है। ज्यादा पैदावार और ज्यादा मुनाफे के लिए किसान खेतों में असीमित मात्रा में केमिकल पेस्टिसाइड्स और फर्टिलाइजर का छिड़काव करते हैं। आइए जानते हैं इन रासायनिक खाद से हमारा कितना नुकसान हो रहा है और हम इसे कैसे कम कर सकते हैं।

पूरे साइकल पर हो रहा असर

फसलों में डाले जाने वाले पेस्टिसाइड्स फलों और सब्जियों के जरिए सीधे हमारे शरीर में जाते हैं। ये खेतों में नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को तो खत्म करते ही हैं साथ ही साथी कीटों को भी नष्ट कर देते हैं। ये वो कीट पतंगे होते हैं जिनसे परागण होता है। इस तरह से पेस्टिसाइट्स से परागण का साइकल टूटता है। इतना ही नहीं पेस्टिसाइट्स मिट्टी की गुणवत्ता और पानी की क्वालिटी पर भी असर डालते हैं।

कार्बन और नाइट्रोजन का बिगड़ता संतुलन

पेस्टिसाइट्स से जमीन में कार्बन और नाइट्रोजन का संतुलन भी बिगड़ रहा है। कार्बन-नाइट्रोजन का मानक अनुपात 4:1 होना चाहिए लेकिन पेस्टीसाइट्स और फर्टीलाइजर्स की वजह से यह अनुपात बिगड़ रहा है। इससे जमीन की उत्पादान क्षमता भी घटती चली जाती है।


क्या देश में इसपर कोई कानून है?

भारत में पेस्टिसाइड्स के उपयोग पर कानून भी बनाया गया है। ‘इंसेक्टिसाइड एक्ट- 1986’ के तहत रसायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग का उल्लेख किया गया है। लेकिन कानून में कोई सख्त नियम नहीं बनाए गए हैं। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कीटनाशनक का प्रोडक्शन करने वाला देश है। यहां कई पेस्टिसाइट्स खुले में उपयोग किए जाते हैं जो कई देशों में पूरी तरह से बैन हैं।

सरकार चला रही है योजनाएं

सरकार की तरफ से कुछ योजनाएं चलाई जा रही है। जिसके तहत मिट्टी की जांच कर बताया जाता है कि मिट्टी में कितने फर्टिलाइजर और पेस्टिसाइड्स डाले जा सकते हैं। “मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना” के जरिए इस योजना की शुरुता 2015 में की गई थी।

जागरूकता है जरूरी

अच्छी पैदावार के साथ जमीन की उर्वरत का बना रहना भी जरूरी है। इसके लिए किसानों को जमीनी स्तर पर जागरूक करना जरूरी है। किसानों को समय-समय पर अपनी खेत की मिट्टी की जांच कराते रहनी चाहिए। सोयाबीन और धान की फसल लेने वाले किसानों को हर 3-3 साल में बदल कर फसलें लेनी चाहिए। कोशिश करनी चाहिए की बाजार में मिलने वाले रासायनिक खाद की बजाए जैविक खाद का उपयोग किया जाए।

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Rishita Diwan

Content Writer

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