Vinod Kumar Shukla: एक खालीपन जो कभी नहीं भरेगा…. हिंदी साहित्य के आकाश में अपनी मौलिक आभा से सबको चकित करने वाले, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके निधन की खबर ने न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे वैश्विक साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ा दी है। विनोद जी केवल एक लेखक नहीं थे, वे भाषा के एक ऐसे जादूगर थे जिन्होंने शब्दों को एक नई देह और संवेदना को एक नया मौन प्रदान किया। मानवीय करुणा, सादगी और जादुई यथार्थवाद के मेल से उन्होंने जो संसार रचा, उसकी कमी लंबे समय तक महसूस की जाएगी।
सादगी और व्यक्तित्व
विनोद कुमार शुक्ल का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं की तरह ही सहज और आडंबरहीन था। रायपुर के कृषि महाविद्यालय में अध्यापन और बाद में जनसंपर्क अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएँ देने वाले शुक्ल जी को लोग अक्सर अपनी पुरानी बुलेट पर सवार होकर शहर की सड़कों पर घूमते देखते थे। वे बेहद संकोची स्वभाव के थे। सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना उन्हें अधिक पसंद नहीं था। वे अक्सर कहते थे कि वे पाठकों के लिए नहीं, बल्कि अपने मन के संतोष के लिए सृजन करते हैं। उनकी इसी सादगी ने उन्हें ‘बौद्धिक गिद्धों’ की राजनीति से दूर एक आधुनिक ऋषि के रूप में प्रतिष्ठित किया।
कहानी कहने का अनूठा शिल्प
विनोद जी ने हिंदी गद्य और कविता को पारंपरिक ढर्रे से निकालकर एक नया शिल्प दिया। उनके उपन्यासों। जैसे ‘नौकर की कमीज’ और ‘खिलेगा तो देखेंगे…ने जादुई यथार्थवाद की एक नई परिभाषा गढ़ी। वे सपाट बयानी के बजाय भाषिक कला-कौशल पर जोर देते थे। उनके लेखन की विशिष्टता यह थी कि वे किसी व्यक्ति की केवल यात्रा का वर्णन नहीं करते थे, बल्कि उसकी शारीरिक संरचना, हाव-भाव और परिवेश का इतना सूक्ष्म चित्रण करते थे कि पाठक उस दृश्य में खुद को खड़ा महसूस करता था। उनकी कविताओं में एक ‘खिलंदड़ापन’ था, जो गंभीर से गंभीर बात को भी सहजता से कह देता था।
जिद और सृजन का मेल
विनोद जी के जीवन से जुड़े कई किस्से आज भी साहित्यकारों के बीच चर्चा का विषय हैं। एक समय ऐसा भी था जब रायपुर में उनके नाम के हमशक्ल ‘विनोदशंकर शुक्ल’ (प्रसिद्ध व्यंग्यकार) हुआ करते थे, और अक्सर लोग नाम की समानता के कारण भ्रमित हो जाते थे।
एक अविस्मरणीय घटना उनके संकोची स्वभाव और पत्रकारिता के प्रति उनके स्नेह को दर्शाती है। एक बार ‘देशबंधु’ अखबार के होली अंक के लिए एक युवा पत्रकार ने उन्हें कमरे में बंद कर आधे घंटे में कविता लिखने की जिद की। विनोद जी पहले घबराए, लेकिन उस दबाव में भी उन्होंने एक कालजयी लंबी कविता लिख दी। यह उनकी सृजनशीलता की पराकाष्ठा थी कि वे खबर की तरह कविता नहीं लिखते थे, लेकिन जब लिखते थे तो वह इतिहास बन जाती थी।
साहित्यिक संस्कार
विनोद जी को बचपन से ही घर में साहित्यिक वातावरण मिला। उनकी माँ ने उनसे कहा था—”जब भी लिखना, दुनिया की सबसे अच्छी किताब पढ़कर लिखना।” उन्होंने माँ की बात को ताउम्र याद रखा। वे गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ के करीबी रहे और हरिशंकर परसाई के साथ उनकी गहरी आत्मीयता थी। वे कभी हिंदी के औपचारिक विद्यार्थी नहीं रहे, लेकिन उन्होंने जो हिंदी लिखी, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक ‘टेक्स्ट बुक’ बन गई।
एक अपूरणीय क्षति
विनोद कुमार शुक्ल का जाना केवल एक व्यक्ति का जाना नहीं है, बल्कि उस मौलिक शिल्प का खो जाना है जो अब दोबारा नहीं लिखा जाएगा। ‘वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह’—उनकी अपनी ही ये पंक्तियाँ आज उन पर सबसे सटीक बैठती हैं। छत्तीसगढ़ की माटी से उपजा यह रचनाकार अपनी सादगी, सज्जनता और अद्वितीय कृतियों के माध्यम से सदैव जीवित रहेगा। ज्ञानपीठ से लेकर साहित्य अकादमी तक के सम्मान उनकी महानता के छोटे प्रतीक मात्र हैं, असल सम्मान तो उन लाखों पाठकों के दिलों में है जो उन्हें पढ़कर संवेदना की नई गहराई को छूते हैं।
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