आपने देश के कई हिस्सों में कृष्ण जन्माष्टमी देखी होगी, दही-हांडी, मटकी-फोड़, झांकी…ये सब जन्माष्टमी का आकर्षण होते हैं… छत्तीसगढ़ में भी आप ये सब देखेंगे लेकिन जन्माष्टमी के दिन ग्रामीण छत्तीसगढ़ में आपको इससे इतर एक खास परंपरा दिखाई देगी, वो है आठे कन्हैया की पूजा। आज की अनसुनी गाथा में कहानी आठे कन्हैया की जो आपको जन्माष्टमी के छत्तीसगढ़ी रंग से सराबोर कर देगी….
क्यों कहते हैं इसे आठे कन्हैया?
कहानी बड़ी ही रोचक है। भगवान श्रीकृष्ण देवकी की आठवीं संतान थे और उनका जन्म भी भादो की अष्टमी को हुआ। कंस को पहले ही भविष्यवाणी मिल चुकी थी कि बहन की आठवीं संतान ही उसका वध करेगी। इसी डर से उसने सातों बच्चों को जन्म लेते ही मार डाला। लेकिन आठवां बच्चा कन्हैया कैसे बच निकले, यही इस लोककथा में चमत्कार की कहानी है।
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण मानते हैं कि इन्हीं 2 कारणों आठवीं संतान और अष्टमी तिथिके चलते इस त्योहार को ‘आठे कन्हैया’ कहा जाता है।
दीवार पर आठ बालचित्र
भादो की कृष्ण अष्टमी को गाँव के लोग घर की दीवार पर, ज़मीन से दो-तीन फीट ऊपर, आठ छोटे-छोटे बच्चों के चित्र बनाते हैं। ये रंग बाज़ार से नहीं आते बल्कि इन्हें बनाया जाता है,
- चूड़ी पीसकर,
- सेम और भेंगरा पत्तों से,
- मेंगराज पौधे के रंग से…
ताज़े, कच्चे रंगों में ये चित्र जितने सरल होते हैं, उतने ही जीवंत भी। कई बार इनके आसपास साँप, बिच्छू, नाव, पतवार जैसे प्रतीक भी बनाए जाते हैं।
लोकश्रुति और नाव की कहानी
साहित्य में तो कृष्ण जन्म और नाव का कोई सीधा संबंध नहीं, लेकिन लोककथा में है। कहते हैं, जब कृष्ण का जन्म हुआ, तो वासुदेव ने उन्हें सूप में छिपाकर कंस के कारावास से बाहर निकाला। शायद इसी वजह से यहाँ कुछ चित्रों में नाव और पतवार भी बनाई जाती है मानो नदी पार कराते वासुदेव का दृश्य।
त्योहार की रीत
इस दिन बच्चे, बुज़ुर्ग, स्त्रियाँ सब उपवास रखते हैं। शाम होते ही झूले सजते हैं, गीत गाए जाते हैं, और रात को जन्म बेला में आठे कन्हैया के सामने पूजा होती है। दीवार पर बने ये चित्र न सिर्फ़ कृष्ण जन्म की याद दिलाते हैं, बल्कि गाँव की कला, संस्कृति और साझा आस्था को भी ज़िंदा रखते हैं।
एक पीढ़ी से दूसरी तक
यह कला किसी चित्रकला विद्यालय से नहीं निकली, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी, माँ से बेटी, दादी से पोती तक चली आई है। हर घर में, हर त्योहार पर, इसे नए रंग, नई कल्पना और नए भाव मिलते हैं। ये सिर्फ़ दीवार कला नहीं ये लोकजीवन का दस्तावेज़ है, जिसमें गाँव का परिवेश, प्रकृति के रंग, और मानवीय रिश्तों की ऊष्मा सब कुछ दर्ज है।
तेज़ी से बदलते समय में भी, कुछ गाँव आज भी इस परंपरा को निभा रहे हैं। लेकिन जैसे-जैसे आधुनिकता बढ़ रही है, यह कला धीरे-धीरे सिमटती जा रही है। ज़रूरत है कि इसे सिर्फ़ एक त्योहार नहीं, बल्कि एक अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर मानकर सहेजा जाए ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी जानें कि छत्तीसगढ़ में कृष्ण जन्माष्टमी सिर्फ़ मनाई नहीं जाती… उसे दीवारों पर जिया जाता है।