महाराजा चक्रधर सिंह: क्या आपने कभी किसी ऐसे राजा की कहानी सुनी है, जो ताज पहनने से पहले तबला थामता था? जो युद्धनीति से ज़्यादा रचनानिति में विश्वास रखता था? जो राजसी वैभव से कहीं ज़्यादा नृत्य की लय में जीवन का सार खोजता था?
छत्तीसगढ़ की पावन धरती पर जन्मे ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व थे — महाराजा चक्रधर सिंह, जिनका नाम भारतीय शास्त्रीय संगीत और कथक नृत्य की दुनिया में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।
जन्म और पृष्ठभूमि
19 अगस्त 1905 — गणेश चतुर्थी का शुभ दिन, जब गोंड राजवंश में एक ऐसे नन्हे राजकुमार ने जन्म लिया, जो आगे चलकर केवल रायगढ़ रियासत का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय कला-जगत का ताज बनेगा।
वे राजा भूपदेव सिंह के पुत्र थे, जिन्हें स्वयं संगीत का गहरा ज्ञान था। उनके चाचा तबला और पखावज के उस्ताद थे। घर का माहौल ही कला से ओतप्रोत था, और यही संस्कार राजा चक्रधर सिंह के व्यक्तित्व में रच-बस गए।
शिक्षा और कला की नींव
राजा चक्रधर सिंह को शिक्षा के लिए राजकुमार कॉलेज, रायपुर भेजा गया, जहाँ उन्होंने संस्कृत, हिंदी और उर्दू के साथ-साथ साहित्य और संगीत का गहन अध्ययन किया।
उर्दू में वे “फरहत” नाम से गज़लें भी लिखा करते थे — एक राजा, जो कवि भी था, और शास्त्रज्ञ भी।
उनकी कला केवल मंच की नहीं, मन की भी थी।
राजसिंहासन से रचना तक
1924 में, अपने बड़े भाई राजा नटवर सिंह के निधन के बाद वे रायगढ़ की गद्दी पर आसीन हुए। लेकिन इस सिंहासन को उन्होंने शासन का केंद्र नहीं, बल्कि कला और संस्कृति का मंदिर बना दिया।
उन्होंने लखनऊ और जयपुर घराने के श्रेष्ठ कथक गुरुओं को बुलाया और कत्थक की “रायगढ़ घराना शैली” की नींव रखी। यह केवल नृत्य की एक शैली नहीं थी, यह एक सांस्कृतिक आंदोलन था, जो भारत की आत्मा को लय और भाव में ढालता था।
राजा या संगीत सम्राट?
राजा चक्रधर सिंह स्वयं भी तबला और सितार में निपुण थे। तांडव नृत्य में उनका प्रभुत्व देखते ही बनता था। उन्होंने ‘नर्तन सर्वस्व’, ‘तालतोय निधि’, ‘मुरजवर्ण पुष्पाकर’, और ‘रागरत्न मंजूषा’ जैसे शास्त्रीय ग्रंथों की रचना की — जो आज भी भारतीय नृत्य और संगीत के गंभीर विद्यार्थियों के लिए अनमोल धरोहर हैं।
कलाकारों का संरक्षक
राजा चक्रधर सिंह के दरबार में कलाकारों को वह सम्मान मिला जो आज भी दुर्लभ है। उन्होंने गरीब कलाकारों को भी वही मंच, वही सम्मान, और वही प्रशिक्षण दिया जो दरबारी कलाकारों को मिलता था।
रायगढ़ उस समय “कला की राजधानी” बन गया था — जहाँ होली, बसंत पंचमी और गणेश चतुर्थी जैसे अवसरों पर देशभर से कलाकार एकत्र होते और अपनी कला का प्रदर्शन करते।
समाप्ति नहीं, शुरुआत
7 अक्टूबर 1947 को, जब स्वतंत्र भारत अपनी पहली साँसें ले रहा था, तब यह सांस्कृतिक सम्राट 42 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए।
लेकिन उन्होंने जो विरासत छोड़ी — वह आज भी जीवित है।
“चक्रधर समारोह” आज भी रायगढ़ में हर वर्ष आयोजित किया जाता है, जिसमें देशभर के कलाकार राजा चक्रधर सिंह की याद में अपनी प्रस्तुतियाँ देते हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ‘चक्रधर सम्मान’ भी उन्हीं की स्मृति में दिया जाता है।
राजा चक्रधर सिंह — एक जीवन, जो स्वयं एक कला था
उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि कला, सत्ता से भी ऊपर हो सकती है। एक राजा जिसने सिद्ध कर दिया कि ‘राजा वही जो कलाकारों का रक्षक हो’।
उनके व्यक्तित्व में संस्कृति, संवेदना और सृजन का ऐसा संगम था, जिसे इतिहास बार-बार याद करेगा।
छत्तीसगढ़ को उन पर गर्व है — और भारतवर्ष को भी।