Hemchand Manjhi: छत्तीसगढ़ के घने जंगलों से निकली ये कहानी किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं है। नारायणपुर जिले के छोटे से गांव ‘छोटे डोंगर’ में रहने वाले हेमचंद मांझी ने बिना किसी डिग्री या मेडिकल कॉलेज के, जंगल की जड़ी-बूटियों से हजारों जिंदगियां बचाईं हैं। उनके हुनर और सेवा को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया है।
चरक से मांझी तक
प्राचीन तक्षशिला विश्वविद्यालय की वो परीक्षा आज भी याद की जाती है जिसमें आयुर्वेदाचार्य चरक ने कहा था “हर पौधे में औषधीय गुण हैं।” ठीक यही दर्शन बस्तर के हेमचंद मांझी अपने जीवन में उतार चुके हैं। उन्होंने ना सिर्फ जंगलों को जाना, बल्कि हर बूटी से रिश्ता भी बनाया।
जहां डॉक्टर नहीं, वहां मांझी
एक वक्त था जब छोटे डोंगर गांव में न अस्पताल था, न दवा। ऐसे माहौल में एक 15 साल का लड़का जंगल की पत्तियों में इलाज ढूंढ रहा था। मांझी ने न किसी से सीखा, न कोई किताब पढ़ी पर उनका अनुभव ही उनकी किताब बन गया।
नाड़ी देखकर करते हैं बीमारी की पहचान
हेमचंद मांझी की सबसे खास बात यह है कि वे सिर्फ हाथ की नाड़ी देखकर बीमारी को पहचान लेते हैं। उसके बाद वे जड़ी-बूटियों को खास अनुपात में मिलाकर दवा बनाते हैं— कभी शहद मिलाकर, कभी नमक या लौंग डालकर। हर मर्ज की उनकी दवा है सटीक और असरदार।
देश-विदेश से आते हैं मरीज
छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, असम से लेकर अमेरिका तक लोग मांझी के पास उम्मीद लेकर आते हैं। रोजाना 100 से ज्यादा मरीज उनके पास पहुंचते हैं। वो इलाज के बदले सिर्फ दवा की लागत लेते हैं। उनका कहना है-“मैं पैसा नहीं, आशीर्वाद कमाता हूं।”
पद्मश्री सम्मान
जब मांझी को पद्मश्री सम्मान मिला, तो उनका जवाब था- “हम तो बस सेवा कर रहे थे, पता नहीं था दिल्ली में कोई देख भी रहा है।” छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने भी मांझी को सम्मानित करते हुए कहा कि उनकी विद्या आने वाली पीढ़ी तक जानी चाहिए।
अगली पीढ़ी को सिखा रहे ‘वनविद्या’
मांझी अब नाड़ी जांचने की विद्या और जड़ी-बूटियों की जानकारी नई पीढ़ी को सिखा रहे हैं। उनका उद्देश्य है कि ये परंपरा खत्म न हो। उनका जीवन मंत्र है- “जब तक सांसें हैं, सेवा करता रहूंगा।”
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विज्ञान सिर्फ लैब में नहीं
हेमचंद मांझी की कहानी सिर्फ एक वैद्य की नहीं है, बल्कि उस भारत की है, जहां ज्ञान मिट्टी में है, सेवा परंपरा में है और दवा हर पत्ते में है। अगर आप कभी बस्तर जाएं और किसी बुजुर्ग को पत्तियों वाला झोला लेकर बैठे देखें, तो समझ जाइए मांझी की परंपरा आज भी जिंदा है।