Surendra Dubey: हँसी बाँटना भी एक हुनर होता है, हर कोई रोने में साथ देता है, लेकिन जो हँसी में साथ निभाए, वही असली कलाकार होता है। डॉ. सुरेंद्र दुबे ऐसे ही कलाकार थे, एक डॉक्टर, एक कवि, एक व्यंग्यकार और सबसे ज़रूरी बात – एक इंसान जो हँसी को दवा बना देता था। वो सिर्फ कवि नहीं थे, बल्कि एक एहसास थे, जो ठहाकों में संवेदना घोल जाते थे।
एक डॉक्टर जो कवि बन गया
8 जनवरी 1953 को छत्तीसगढ़ के बेमेतरा में जन्मे सुरेंद्र दुबे ने ज़िंदगी की शुरुआत एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के रूप में की। लेकिन दिल के किसी कोने में कविता धीरे-धीरे घर बना रही थी। पिता वीर रस के कवि थे, शब्दों की ताकत घर में ही सीखी थी। लेकिन सुरेंद्र खुद कभी कवि नहीं बनना चाहते थे।
नौकरी की, परिवार चलाया… लेकिन एक खालीपन था।
वो खालीपन कविता ने भरा।
“मेरे अंदर गांव है” – यही था उनकी शैली का सार
उनकी कविता में गांव था, मिट्टी की खुशबू थी, आम भाषा थी, और वो अंदाज़ था जिसे हर कोई समझता था।
जब वे बोलते – “दु के पहाड़ा ल चार बार पढ़, आमटहा भाटा ला खा के मुनगा ल चिचोर…” –
तो लोग सिर्फ हँसते नहीं थे, छत्तीसगढ़ को महसूस करते थे।
500 रुपये से शुरू हुआ सफर, दिलों तक पहुँचा
शुरुआती दिनों में वे 500 रुपये लेकर कवि सम्मेलन में जाते थे।
लेकिन उनकी कविता करोड़ों दिलों को सुकून देती थी।
उनकी लाइनों में मज़ाक नहीं, सच्चाई थी। हास्य नहीं, व्यंग्य था।
और सबसे खास उनकी भाषा में बनावट नहीं थी, अपनेपन की मिट्टी थी।
कोरोना में कविता बनी इम्युनिटी
जब कोरोना काल में पूरा देश डरा हुआ था, तब सुरेंद्र दुबे की कविताएं संजीवनी बनीं। वे कहते थे – “हम हँसते हैं, हँसाते हैं, इम्युनिटी बढ़ाते हैं।”
मंच उनका घर था, और जनता उनका परिवार।
छत्तीसगढ़ी को किया ग्लोबल
अमेरिका के 52 शहरों में उन्होंने अपनी कविताएं पढ़ीं।
सात समुंदर पार उन्होंने छत्तीसगढ़ी को ग्लोबल पहचान दिलाई।
उनकी रचनाएं जैसे – “टाइगर अभी जिंदा है”, “पीएम मोदी के आने से फर्क पड़ा है”, “दु के पहाड़ा”
सुनने वालों के चेहरे पर हँसी और दिल में गहराई छोड़ जाती थीं।
सम्मान बहुत मिले, लेकिन उन्होंने कभी ओढ़े नहीं,
- 2008 – काका हाथरसी हास्य रत्न पुरस्कार
- 2010 – भारत सरकार का पद्मश्री
- 2019 – अमेरिका में हास्य शिरोमणि सम्मान
तीन विश्वविद्यालयों में उनकी रचनाओं पर PhD
लेकिन उनका असली अवॉर्ड था – वो मुस्कान जो उनकी कविताओं से जन्म लेती थी।
और फिर… मंच हमेशा के लिए खाली हो गया
26 जून 2025 को रायपुर में उन्होंने अंतिम साँस ली।
दिल रुक गया, लेकिन उनकी कविता का दिल धड़कता रहेगा।
हर बार जब कोई बच्चा “दु के पहाड़ा” दोहराएगा,
हर बार जब कोई मंच पर खड़े होकर गांव की बात करेगा,
हर बार जब कोई दुख में कविता से सुकून ढूंढेगा —
डॉ. सुरेंद्र दुबे वहीं होंगे।
“वो कवि नहीं, संवेदनाओं के डॉक्टर थे”
कुमार विश्वास ने लिखा – “मेरे हृदय के रायपुर का एक हिस्सा आपकी अनुपस्थिति को सदैव अनुभव करेगा भैया।” डॉ. सुरेंद्र दुबे की ज़िंदगी हमें ये सिखाती है कि हँसी सबसे सच्चा हथियार है। वो गए नहीं, बस अब वो हर उस हँसी में ज़िंदा हैं जो उन्होंने हमें दी।