‘’’चित्रकारी करना मेरे लिए कला नहीं एक साधना (meditation) है। न तो मेरे परिवार में कोई आर्ट प्रेमी है और न ही मेरा बचपन ऐसे लोगों को बीच बीता जो कला या चित्रकारी जैसी विधाओं में पारंगत थे। मैंने बस बचपन से ही सहसा कलम उठाया और चल पड़ी रंगों की दुनिय से रूबरू होने। कला के प्रति मेरा ये झुकाव न जाने कैसे मुझे बिलासपुर से लगभग 500 किलोमीटर दूर घने जंगलों के ईर्द-गिर्द बस्तर ले आया और यहां आकर मैं Bastar Tribal Art में ऐसे रम गई जैसे मुझे किसी शक्ति ने खुद ही चुना हो।” ये बातचीत के अंश दीप्ती ओगरे के साथ seepositive की थी जो उन्होंने एक कलाकार के रूप में बताया।
दीप्ती की पहचान छत्तीसगढ़ के नए चित्रकारों में होने लगी है। पारंपरिक रूप से उन्होंने चित्रकला में कोई डिग्री हासिल नहीं की लेकिन उनकी कला आज एक अलग पहचान रखती है। दीप्ती ओगरे बिलासपुर की रहने वाली हैं और फिलहाल इंदिरा संगीत कला एवं महविद्यालय से पीएचडी की रिसर्च स्कॉलर हैं। दीप्ती की पहचान इसलिए भी खास है क्योंकि उन्हें बस्तर के गोंड समुदाय ने खुद चुना एक ऐसे काम के लिए जो गोंड समुदाय की पीढ़ी पिछले कई सालों से करती आ रही है। दीप्ती आगे बात करते हुए कहती हैं कि….

बस्तर की जीवन शैली, Bastar Tribal Art, कला, संस्कृति, रीति रिवाज, मेला मंडाई मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। ऐसे ही घूमने और Bastar Tribal Art को जानने के लिए मैं साल 2022 में बस्तर पहुंची। यहां मुझे मेरे एक मित्र के साथ काम करने का मौका मिला जो बस्तर में अपना एक होमस्टे चलाते हैं और दूरस्थ अंचल में बसे आदिवासियों की जरूरतों के लिए काम भी करते हैं। साधारण बोलचाल में हम इसे समाज सेवा कह सकते हैं। मुझे भी बस्तर को जानना था तो मैं उनके साथ निकल पड़ी। पर कहते हैं न कि आपकी रूचि आपको हर जगह बांध लेती है। मेरे साथ भी यही हुआ। बस्तर में मैं कई आदिवासी परिवारों के साथ मिली, उनके साथ रही उनकी कला और संस्कृति को करीब से जाना।

इसी दौरान मुझे आदिवासियों के गोदना पर चित्रकारी करने की इच्छा हुई। बस फिर क्या था मुझे जब भी मौका मिलता मैं Bastar Tribal Art, गोदना और फिर बस्तर के हर रंग को कैनवास पर उतारने लगी। धीरे-धीरे लोग मुझे जानने लगे और मेरी पहचान एक चित्रकार के रूप में भी हो गई।
हंसते हुए दीप्ती कहती हैं कि.. अब उस बात पर आती हूं जिस बात ने आपको मेरी तरफ खींचा। दरअसल बस्तर के गांवों में जब मैं जाने लगी तो लोगों से मेरे घनिष्ठ संपर्क बनें। वो मेरे जीवन का ऐसा अभिन्न अंग बन गए जैसे कि आदिवासियों के जीवन में गोदना चित्रकारी जो मृत्यु तक साथ नहीं छोड़ता। बस्तर में ही गुड़ियापदर है। कांगेर घाटी नेशनल पार्क के बारे में तो जानते ही होंगे आप। वहीं पर घने जंगलों में एक गांव बसा है। यहां सिर्फ 32 परिवार का छोटा सा गाँव है ये लोग गोण्ड समुदाय से आते हैं। इस गांव के अधिकांश लोग सामान्य हिंदी या छत्तीसगढ़ी दोनों नहीं जानते हैं। यहां संपर्क के लिए दुभाषिए की जरूरत पड़ती है। इसी समुदाय के मेरे एक परिचित थे विजय भैया। उनकी मां कैंसर की बीमारी के चलते 4 जनवरी 2023 को चल बसीं। जिसके बाद उनका स्मृति स्तंभ बनाना था।
स्मृति स्तंभ की बात पर दीप्ती जरा रुककर बोलीं “स्मृति स्तंभ आदिवासियों के लिए काफी महत्वपूर्ण होता है। दरअसल आदिवासियों का मृत्यु के बाद जहां पर अंतिम संस्कार किया जाता है वहां पर एक मेमोरियल पिल्लर बनाया जाता है। इसमें मरने वाले के जीवन की कहानी चित्र के माध्यम से उकेरी जाती है।”
दीप्ती के लिए विजय की मां बुधरी दूसरी मां समान थी। बुधरी के जीवनकाल में दीप्ती ने उनके साथ काफी समय बिताया था।
दीप्ती कहती हैं “जब बुधरी मां गुजर गई तो मुझे सूचना भिजवाई गई कि उनका मेमोरियल पिल्लर मुझे बनाना है। मैं हैरान होने के साथ ही स्तब्ध थी। क्योंकि इससे पहले गोण्ड समुदाय में चित्र उकेरने का कार्य ग्राम या परिवार के सदस्य ही करते हैं न कि कोई गैर आदिवासी। ये मेरे लिए सम्मान की बात थी।”
जिस दिन स्मृति स्तंभ बनाया जाना था मैं वहां पहुंच गई, गांव के सिरहा (वड्डे), गाँयता, पुजारी, गुनिया ने मुझे अपने समीप बैठाकर अपने पेन पुरखों का आव्हान शुरू करवाया। ये आदिवासियों की परंपरा होती है। ग्राम के देवी देवता – बामन डोकरी, दीवान डोकरी, गमरानी, इकाड मावली, कोडो रानी, बीजा राज, कान्दा खाई मावली, डांड, पाट आदि को भोग लगाकर सभी से इस काम की अनुमति ली गई की मुझे ये काम सौंपा जाए। मुझे अनुमति स्वरूप फूल, केला और चाँवल दिया गया ताकि चित्रांकन का कार्य मैं शुरू कर सकूं।
मैं प्रफुल्लित भी थी और डर भी लग रहा था, क्योंकि मुझे वो कार्य सौंपा गया था, जिसके विषय में न तो मुझे पूरी जानकारी थी, न ही अपने जीवन में कभी ऐसा कार्य किया था। हां अपनी यात्राओं के दौरान मैंने बस्तर के तोकापाल, बास्तानार, लोहांडीगुडा, नारायणपुर, कोण्डागाव में बहुत से स्मृति स्तंभ और मठ देखे थे, जिसमें मृतक के संबंध में जानकारियां अंकित की गयी थी।

गोण्ड समुदाय सैकड़ों वर्षों से स्मृति स्तंभ बनाने की प्रथा को निभाता आ रहा है जो आज भी निरंतर चली आ रही है। ये दिखने में भले ही आसान लगता हो, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं।
मृत व्यक्ति के पूरे जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी जमा करना, हर छोटी बड़ी घटनाओं के मध्य सामंजस्य बिठाकर उसे अलग-अलग रंगों के माध्यम से व्यक्ति के मनोभाव, संवेदनाओं को चित्रित करना बेहद कठिन कार्य है।
दीप्ती को बुधरी बाई के साथ बिताए पल याद तो थे और बहुत सी जानकारी उनके परिवार से मिली।
दीप्ती कहती हैं कि “हर कलाकार चित्र को अपनी अभिरुचि के अनुरूप रंग, शैली, पैटर्न के हिसाब से चित्रित करता है, चित्रकार मृतक स्तंभ पर अपनी छाप छोड़ता है, जिसके कारण उसके चित्र विशेष शैली दिखाई पड़ती है। बुधरी मां के स्मृति स्तंभ बनाने के दौरान मैं एक अलग ही ऊर्जा को महसूस कर रही थी, न मेरे रंग, न शैली, न ही ब्रश मेरे अनुरूप चल रहे थे, पूरे समय ऐसा लगता रहा जैसे मैं किसी के प्रभाव में हूँ और उसी अनुरूप मेरे हाथ चल रहे हैं।
बुधरी मां के शांति कार्यक्रम के बाद मुझे भेंट स्वरूप सिहाडी के पत्तों में लपेट कर, काँसे का कसेला (जिसके भीतर ग्रामीणों और सगे संबंधियों द्वारा भेंट स्वरूप रुपये रखे थे) एक तौलिया दिया गया, साथ यह भी निर्देश दिया गया कि काँसे के कसेले को मुझे अपनी अगली पीढी को सौंपनी होगी। मैं यहां पूरी तरह से आश्चर्य थी क्योंकि मेरी कला के चलते मैं अब इस आदिवासी समुदाय का हिस्सा बन गई।

दीप्ती बात आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि “एक बात तो निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि जिस किसी भी समाज में जिस भी प्रथा या रुढ़ी का चलन होता है उसमें कुछ positive मैसेज छिपे होते हैं, जरूरत बस उन्हें समझने की होती है। भेंट स्वरूप मिला कसेला इस बात की तरफ इशारा कर रहा था कि मुझे जिस समाज ने चित्रांकन करने के लिए चुना है, वो आगे भी ऐसी ही ज़िम्मेदारी मुझे देंगे और मुझे अपनी मृत्यु के पूर्व ऐसे ही कलाकारों को जन्म देना है, उन्हें चित्रांकन की कला से परिचित कराना है ताकि आदिवासी समुदाय के इस खूबसूरत रीति को आगे बढ़ाया जा सके। प्रथाओं, रीति रिवाजों को संरक्षित और हस्तांतरित करने का इससे अच्छा और क्या उपाय हो सकता है।
Positive सार
दीप्ती की कहानी साधारण होकर भी असाधारण है। उनकी कला, जिज्ञासा और अपने कार्य के प्रति दृढ़ता ये बताती है कला कभी भी किसी भी दायरे में बंधकर नहीं रहती है। कला वो भाषा है जिसे बूझने के लिए सिर्फ संवेदनाओं का होना जरूरी है ताकि उसे महसूस कर दुनिया के सामने लाया जा सके।