कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गाँव में हुआ था। उनका जन्म एक नाई परिवार में हुआ था, जो उस समय सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ माना जाता था।
ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। इसके बाद, उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में काम किया और 1946 में एक स्कूल के प्रधानाध्यापक बने।
1952 में, ठाकुर बिहार विधानसभा के लिए चुने गए और समाजवादी पार्टी के सदस्य के रूप में राजनीति में प्रवेश किया। वह जल्द ही पार्टी के प्रमुख नेताओं में से एक बन गए और 1970 के दशक में बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में दो बार कार्य किया।
ठाकुर सामाजिक न्याय के प्रबल पक्षधर थे और उन्होंने अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के उत्थान के लिए लगातार काम किया। उन्होंने शिक्षा में हिंदी को बढ़ावा दिया और अंग्रेजी को अनिवार्य विषय के रूप में हटाने का फैसला लिया।
ठाकुर अपनी ईमानदारी और भ्रष्टाचार विरोधी रुख के लिए जाने जाते थे। उन्होंने सरकारी खर्च में कटौती की और सरकारी अधिकारियों के लिए सख्त आचार संहिता लागू की।
ठाकुर सादगी के जीवन के लिए जाने जाते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए भी वह सरकारी आवास में नहीं रहते थे और रिक्शे से सफर करते थे। उनके पास कोई जमीन या कार नहीं थी और वह अपने पूरे जीवन किराए के मकान में रहे।
ठाकुर को बिहार के लोग "जननायक" के नाम से पुकारते थे। वह गरीबों और वंचितों के प्रिय नेता थे और उनके लिए उनकी लड़ाई ने उन्हें जनता का हीरो बना दिया।
2024 में, उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया, जो भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान उनके सामाजिक न्याय, शिक्षा और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यों के लिए दिया गया था।