बाल्यकाल से ही आदि शंकराचार्य का वेदों और शास्त्रों में गहरा रुचि थी। उन्होंने मात्र 8 वर्ष की आयु में ही गृह त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया था और ज्ञान की खोज में निकल पड़े थे।
अद्वैत वेदांत का प्रचार: आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत का प्रचार किया, जो 'ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या' के सिद्धांत पर आधारित है।
आदि शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की: – उत्तर में ज्योतिष्पीठ (बद्रीनाथ) – दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ (श्रृंगेरी) – पूर्व में गोवर्धन पीठ (पुरी) – पश्चिम में शारदा पीठ (द्वारका)
आदि शंकराचार्य के जीवन में कई महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक विवाद हुए, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध है मंडन मिश्र के साथ उनका शास्त्रार्थ।
उनके जीवन से जुड़े कुछ चमत्कार और कहानियां जो लोककथाओं का हिस्सा हैं, जैसे कि उनके द्वारा रचित 'सौन्दर्यलहरी' और 'शिवानन्द लहरी'।
माना जाता है कि उन्होंने केवल 32 वर्ष की आयु में ही इस संसार को छोड़ दिया, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने हिन्दू धर्म को एक नई दिशा दी।