सनातन वैदिक दर्शन में कई महावाक्य लिखे गए हैं। इन महावाक्यों में छांदोग्य उपनिषद का महावाक्य- ‘तत्वमसि’ और ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मं’; माण्डूक्य उपनिषद का महावाक्य- ‘अयम् आत्मा ब्रह्म’; ऐतरेय उपनिषद का महावाक्य- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ और वृहदारण्यक उपनिषद का वह महाघोष जिसे आदि शंकराचार्य ने जन वाक्य बना दिया था- ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ये सभी शामिल हैं। इनका अर्थ इतना गहन और है कि ये आज विश्व की किसी भी परेशानी का समुचित हल प्रदान करने में सक्षम हैं।
दुनिया की सबसे बड़ी परेशानी ही है ‘जड़वाद’। लोग अपने ही विचारों को सबसे महान बताने और साबित करने की दौड़ का हिस्सा बने हुए हैं। ऐसे में हमें इन संकुचित विचारधाराओं से थोड़ा ऊपर उठकर ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद के महावाक्य- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ से यह सीखना चाहिए, जिसका अर्थ होता है- ‘ज्ञान ही ब्रह्म है’।
भगवान महावीर ने भी इसी का अनुकरण करते हुए ‘अनेकांतवाद’ का सिद्धांत दिया। अनेकांतवाद यानी तुम भी सही, मैं भी सही, न कि सिर्फ़ तुम ही सही। जड़वाद से ही कट्टरता और आतंकवाद जैसी समस्याएं पैदा होती है। आज जब पूरी दुनिया कट्टरता और आतंकवाद के साएं में जीने को मजबूर है तब, तब हमें सामवेद के छांदोग्य उपनिषद के महावाक्य- ‘तत्वमसि’ से सीखना चाहिए जिसका अर्थ है, ‘वह तुम ही हो’ यानी- तुम ही ब्रह्म हो’। जिस दिन हम मानव मात्र में ईश्वर देखने लगेंगे, उस दिन से हमारे मन में ‘सर तन से जुदा’ जैसे बेकार के विचार खत्म हो जाएंगे।
अथर्ववेद के माण्डूक्य उपनिषद का महावाक्य का कहना है कि ‘अयम् आत्मा ब्रह्म’ यानी- यह आत्मा ही ब्रह्म है; जिस दिन हमारा समाज जीवमात्र सहित कण-कण में ईश्वर देखने और जीने लगेगा, उस दिन से हिंसा, अलगाववाद, नस्लवाद, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ग्लोबल वार्मिंग, बीमारी, महामारी सहित सभी प्रकार के प्रदूषण, सभी प्रकार की विद्रूपताएं अपने आप ही खत्म हो जाएंगी।
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