छत्तीसगढ़ की आराध्या मां बम्लेश्वरी आस्था, संस्कृति और इतिहास का संगम है। ये छत्तीसगढ़ ही नहीं महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के लोगों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। ऐसे में क्या आप जानते हैं कि डोंगरगढ़ की इस पहाड़ी पर मां बम्लेश्वरी कैसे आईं? और प्राचीन ग्रंथों में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का जिक्र डोंगरगढ़ में क्यों किया गया है? जानेंगे सबकुछ आज की *अनसुनी गाथा* में कहानी मां बम्लेश्वरी देवी और डोंगरगढ़ कीजो छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा तीर्थ होने के साथ ही छत्तीसगढ़ का वैष्णोदेवी भी कहलाता है। रायपुर जिला मुख्यालय से लगभग 110 किलोमीटर की दूर पर संस्कारधानी राजनांदगांव जिले में स्थित है डोंगरगढ़
मैकल पर्वत पर विराजी हैं मां बम्लेश्वरी
मैकल के विशाल पर्वत श्रृंखला में डोंगरगढ़ की सर्वोच्च शिखर पर 1600 फीट की ऊंचाई पर विराजी हैं शक्तिस्वरूपा मां बम्लेश्वरी। वहीं पहाड़ी के नीचे समतल पर उनकी बहन छोटी बमलेश्वरी का मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी देवी से मांगी गई हर मनोकामना पूरी होती है। यही वजह है कि देश के कोने-कोने से यहां लोग अपनी आस्था के दीपक जलाते हैं।
क्या था प्राचीन नाम?
प्राचीन काल में मां बमलेश्वरी को बमलाई दाई, मां बगलामुखी के नाम से जाना जाता था। वहीं डोंगरगढ़ का प्रचीन नाम कामाख्या नगरी, कामावती नगर और डुंगराज्य नगर उल्लेखित है। डोंगरगढ़ के अर्थ की बात करें तो डोंगर मतलब पहाड़ और गढ़ मतलब किला।
क्या है इतिहास?
लक्ष्मीवेकटेंश्वर स्टीम प्रेस कल्याण-मुंबई द्वारा प्रकाशित ‘माधवानल कामकंधला नामक किताब में कई रहस्यों से पर्दा उठाया गया है। इसके मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास 2500 सालों से भी ज्यादा पुराना है। कहा गया है कि आज के डोंगरगढ़ को तब कामाख्या नगर कहा जाता था जिसके राजा थे वीरसेन, वीरसेन कई सालों तक निसंतान थे उन्हें उनके राज्य के लिए वारिस की जरूरत थी। राजा ने मां भगवती और शिव की भक्ति से एक पुत्र रत्न को प्राप्त किया और नाम रखा मदनसेन। पुत्र की प्राप्ति के बाद ही राजा वीरसेन ने मां भगवती का मंदिर बनावाया।
राजा विक्रमादित्य से जुड़ी है कहानी
एक और कहानी के मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास राजा विक्रमादित्य और राजा कामसेन के युद्ध और माधवानल-कामकंदला की प्रेम कहानी से जुड़ी है। दरअसल राजा वीरसेन के पोते और मदनसेन के पुत्र कामसेन के दरबार में माधवानल एक बेहद निपुण संगीतकार थे। और खूबसूरत नृत्य कला की धनी कामकंदला राज नर्तकी थीं। एक बार राज दरबार में दोनों ने अपनी प्रस्तुती दी, उनकी प्रस्तुती से खुश होकर राजा ने माधवानल को आभूषण भेंट किए, उसी आभूषण को माधवानल ने प्रस्तुती के बाद कामकंदला को समर्पित कर दिया। इस बात से राजा नाराज हो गए। राजा ने माधवानल को देशनिकाला और कामकंदला को देशद्रोही करार दिया। माधवानल दुखी होकर राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे और उन्हें अपनी कला से प्रसन्न कर दिया। राजा विक्रमादित्य ने माधवानल और कामकंदला को फिर से मिलाने के लिए कामसेन के राज्य कामावती जो आज का डोंगरढ़ है, पर आक्रमण कर दिया। राजा विक्रमादित्य ने शिव के आव्हान और कामसेन ने मां भगवती का आव्हान कर युद्ध लड़ा। ऐसा कहा जाता है कि जब राजा कामसेन हारने लगे तब मां भगवती स्वयं प्रकट हो गईं और जैसे ही भगवान शिव ने मां भगवती का रौद्र रूप देखा शिव ने मां भगवती को शांत कर राजा विक्रमादित्य एवं राजा कामसेन के मध्य संधि कराई।
युद्ध की समाप्ति के बाद राजा विक्रमादित्य ने कामकंदला और माधवानल के प्रेम की परीक्षा ली उन्होंने कामकंदला को युद्ध में माधवानल के मारे जाने की झूठी सूचना पहुंचा दी। कामकंदला इस सूचना से आहत हो गई और पहाड़ी के नीचे स्थित तालाब में डूब कर अपने प्राण त्याग दिए। इसी तालाब को आज कामकंदला तालाब के नाम से जाना जाता है।
कामकंदला की मृत्यु की सूचना माधवानल को मिलने पर उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए। कामकंदला और माधवानल के मृत्यु होने पर राजा विक्रमादित्य को अपने इस कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ। उन्होंने पहाड़ी की ऊंची चोटी पर मां भगवती का आह्वान किया। मां भगवती से राजा विक्रयादित्य ने कामकंदला और माधवानल को पुर्नजीवित करने का आग्रह किया। मां भगवती के आशीर्वाद से कामकंदला और माधवानल को पुनः जीवनदान मिला। राजा विक्रमादित्य ने मां भगवती से यहां विराजमान होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया और तब से मां भगवती ही डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी देवी के रूप में विराजमान होकर भक्तों की मनोकामना पूर्ण कर रही है।
नवरात्रि में होती है विशेष पूजा
मां बम्लेश्वरी मंदिर में हर साल चैत्र नवरात्र और क्वांर नवरात्रि के समय दो बार भव्य मेले का आयोजन होता है। जिसमें लाखों की संख्या में दर्शनार्थी पैदल और दूसरे माध्यमों से पहुंचते हैं। डोंगरगढ़ स्थित मां बम्लेश्वरी मंदिर पर जाने के लिए सीढ़ियों के अलावा रोपवे की सुविधा भी है। माँ बम्लेश्वरी देवी का मंदिर 1610 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। देश के विभिन्न राज्यों एवं विदेशों से भी भक्त पर्वत पर बने लगभग 1000 सीढियों की कठिन चढ़ाई कर माता के दर्शन के लिए आते है।
डोंगरगढ़ को वैभव को देखते हुए भारत सरकार द्वारा पर्यटन मंत्रालय की प्रसाद योजना में इसे शामिल किया गया है, जो छत्तीसगढ़ का एकमात्र प्रसाद योजना स्थल है। जिसके तहत यहां विकास कार्यो और सौंदर्यीकरण के लिए 43 करोड़ 33 लाख रूपए खर्च किए जा रहे हैं। डोंगरगढ़ में देश का सबसे बड़ा श्रीयंत्र भी बनने जा रहा है। वहीं रोपेवे एक अतिरिक्त आकर्षण का केन्द्र है और छत्तीसगढ़ की पहली और एकमात्र यात्री रोपेवे के रूप में इसकी पहचान है।